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8 गीता दर्शन भाग-508
सोरेन कीर्कगार्ड ने कहा है, कांशसनेस मीन्स सब्जेक्टिविटी, | कहना नहीं है भीतर कि मेरा दायां पैर उठा, मेरा बायां पैर उठा! न; अल्टिमेट सब्जेक्टिविटी, आखिरी जानना। उसके पार, पीछे नहीं | ऐसा जानना है कि यह बायां पैर उठा, यह दायां पैर उठा। इसका हट सकते हम।
| होश रखना है। आप रास्ते पर चलते-चलते अचानक चकित हो हम कितने ही भागते चले जाएं, कितने ही पीछे हटें, जो हट रहा | | जाएंगे कि शरीर चल रहा है, आप नहीं चल रहे हैं। भोजन करने है पीछे, वही चेतना है। हम चेतना से पीछे नहीं हट सकते। चेतना | | बैठे हैं, तो यह मैंने कौर बनाया है, यह कौर मैं मुंह में ले गया। से पीछे नहीं हटा जा सकता, इसीलिए चेतना हमारा स्वभाव है। इसको होशपूर्वक करें। और कृष्ण कहते हैं, चैतन्य, चेतनता, ज्ञान की शक्ति में हूं। बेहोश की तरह कर रहे हैं लोग! खाना खा रहे हैं, वह एक यंत्र
सूर्य से, विष्णु से बात शुरू की है उन्होंने। और पास हटते-हटते | की तरह डालते जा रहे हैं। हो सकता है, उस वक्त वे वहां भोजन इंद्रियों, मन की बात की है। और पीछे हटते-हटते उन्होंने मौलिक की टेबल पर मौजूद ही न हों, दफ्तर में पहुंच गए हों; या किसी आखिरी सूत्र अर्जुन को दिया कि मैं चेतना हूं।
अदालत में मुकदमा लड़ रहे हों; या पता नहीं, क्या कर रहे हों! जो व्यक्ति भी ऐसा जान ले कि मैं चेतना हूं, उसने जो भी जानने होशपूर्वक भोजन करें, तो आप थोड़े ही दिन में इस अनुभव को योग्य था, वह जान लिया। और जो व्यक्ति ऐसा न जान पाए कि | उपलब्ध हो जाएंगे कि भोजन शरीर में जा रहा है, आप में नहीं। मैं चेतना हं. तो उसने और कछ भी जान लिया हो. जो भी जानने | क्योंकि वह जो होश है, वह आप हैं। तब आप बिलकुल साफ देख योग्य है, उससे वह वंचित रह गया है। गहनतम जो हमारे भीतर पाएंगे कि भोजन शरीर में जा रहा है, और आप अछूते रह गए हैं, केंद्र है, सबसे गहरे में छिपा हुआ जो केंद्र है, वह चैतन्य का है। | पार रह गए हैं। आप देख रहे हैं। ___ इसलिए हम परमात्मा के लक्षण में सत-चित-आनंद-सत्य | फिर आपको ऐसा नहीं लगेगा कि मुझे भूख लगी। आपके उसे कहा है, चैतन्य उसे कहा है, आनंद उसे कहा है। चैतन्य को | सोचने का, देखने का ढंग ही बदल जाएगा। फिर आप कहेंगे, मेरे हम परमात्मा के भी केंद्र में रखे हैं। सत कहा है कि वह सत्य है, | शरीर को भूख लगी। और फिर आप ऐसा नहीं कहेंगे कि मैं तप्त शुरू में। फिर कहा चित, चैतन्य है, बीच में। और फिर कहा | | हो गया। आप ऐसा कहेंगे कि शरीर की तृप्ति हो गई। शरीर को आनंद, अंत में।
प्यास लगी। फिर आप कहेंगे, शरीर बूढ़ा हो गया। सत्य की हम खोज करें, तो चैतन्य हमें उपलब्ध होगा; और और जो आदमी चलने में जान ले कि मैं नहीं चलता, शरीर चैतन्य में हम स्थापित हो जाएं, तो आनंद हमारा स्वभाव होगा। यह चलता है। भोजन में जान ले कि मैं नहीं करता, शरीर करता है। जो चैतन्य, कांशसनेस है, यह हम कैसे उपलब्ध करें? सोते में जान ले, मैं नहीं सोता, शरीर सोता है। वह मरते क्षण में भी
हम तो जीते हैं बिलकुल सोए-सोए, मूर्छित। हम जो भी करते जानने में समर्थ हो जाएगा, मैं नहीं मरता, शरीर मरता है। लेकिन हैं, ऐसे करते हैं, जैसे नींद में कर रहे हों, नशे में चल रहे हों। इसको क्रमशः चैतन्य को बढ़ाए जाने से यह आत्यंतिक अनुभव आपको क्रोध आ जाता है, तो आप कहते हैं, आ गया। पता नहीं उपलब्ध होता है। क्यों आ गया! किसी को गाली दे दी; निकल गई। कोई ऐसा नहीं आज इतना ही। कि आप होश में हैं; बेहोश चल रहे हैं। आपका बेहोश और होश लेकिन रुकें पांच मिनट। कोई उठे न। पांच मिनट संगीत और के बीच डांवाडोल होता रहता है अस्तित्व। ज्यादातर बेहोशी में | कीर्तन में सम्मिलित हों, फिर जाएं। कभी-कभी क्षणभर को कोई होश का क्षण आता है, नहीं तो नहीं आता। जीवन ऐसे ही गुजर जाता है।
इस बेहोशी की हालत में उस चैतन्य का पता लगाना बहुत कठिन मालूम पड़ेगा, बहुत दूर मालूम पड़ेगा। लेकिन वह इतना दूर नहीं है, जितना दूर मालूम पड़ता है। थोड़ी चेष्टा चाहिए। थोड़ी-सी चेष्टा।
रास्ते पर चल रहे हैं, होशपूर्वक चलें। जानते हुए चलें कि चलने की घटना हो रही है, मेरा बायां पैर उठा, मेरा दायां पैर उठा। ऐसा
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