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गीता दर्शन भाग-5
और आप इन्हीं पर रोक लगा देते हैं! फिर पूछने को कुछ बचता नहीं ! ईश्वर मत पूछो, आत्मा मत पूछो, मोक्ष मत पूछो, यह कुछ पूछो ही मत। इन ग्यारह में, आपके सारे दार्शनिक सवालों को बुद्ध अलग कर देते थे। तो हम क्या पूछें?
तो बुद्ध कहते थे, बेहतर हो कि तुम पूछो कि ईश्वर कैसे पाया जा सकता है! पूछो कि ईश्वर कैसे जाना जा सकता है! पूछो कि ईश्वर कैसे हुआ जा सकता है ! यह मत पूछो कि ईश्वर क्या है ! इसका मतलब आप समझे? ईश्वर की हम व्याख्या नहीं कर सकते, लेकिन अनुभव कर सकते हैं। सौंदर्य की हम व्याख्या नहीं कर सकते, अनुभव हम रोज करते हैं। फूल खिलता है और हम कहते हैं, सुंदर है। और छोटा-सा बच्चा भी पूछ ले कि सौंदर्य यानि क्या? क्या मतलब सौंदर्य से? कहां है सौंदर्य इस फूल में, मुझे बताओ! हाथ रखकर, अंगुली रख दो कि यह रहा सौंदर्य।
आप पंखुड़ी पर अंगुली रखेंगे, तो लगेगा, यह भी कोई सौंदर्य हुआ ! आप पूरे फूल को भी मुट्ठी में ले लेंगे, तो भी क्या आप समझते हैं, आपने सौंदर्य को मुट्ठी में ले लिया! आप कहां से बताएंगे कि सौंदर्य यह रहा! आप उस बच्चे को कहेंगे, सौंदर्य एक अनुभव है । हो तो हो, न हो तो न हो।
और फूल से सौंदर्य का कुछ लेना-देना नहीं है। क्योंकि कल सुबह आप कहेंगे, बड़ा सुंदर सूरज निकल रहा है । बच्चा पूछेगा कि फूल में और सूरज में कोई संबंध तो मालूम नहीं होता ! कल फूल को सुंदर कहते थे, आज सूरज को सुंदर कहने लगे ! कुछ तो समझ का उपयोग करो ! और परसों आप कहेंगे किन्हीं आंखों में देखकर कि आंखें बड़ी सुंदर हैं। तो वह बच्चा कहेगा, अब आप बिलकुल पागल हुए जा रहे हैं। परसों फूल को कहा था सौंदर्य । कल सूरज को कहा था सौंदर्य। आज आंखों को कहने लगे सुंदर हैं! सौंदर्य क्या है ?
अगर इन तीनों में है, तो इसका मतलब हुआ कि फूल से वह समाप्त नहीं होता। सूरज पर समाप्त नहीं होता। आंखों में समाप्त नहीं होता। अगर इन तीनों में है, तो तीनों जैसा नहीं है और फिर भी तीनों के भीतर कहीं छिपा है। तीनों में अनुभव होता है और हृदय एक-सा आंदोलित होता है। लेकिन कहां फूल और कहां सूरज और कहां आदमी की आंखें ! इनमें कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता ।
दृश्य फूल में भी मौजूद है, जिसे आप सौंदर्य कहते हैं। कोई अदृश्य आंख में भी मौजूद है, जिसे आप सौंदर्य कहते हैं। दोनों में कहीं कोई मेल है।
अल्बर्ट आइंस्टीन तो बड़ा गणितज्ञ था, लेकिन उसने विवाह जिससे किया, फ्रा आइंस्टीन से, वह एक कवि स्त्री थी। यह बड़ा | कठिन जोड़ है। ऐसे तो पति-पत्नी के सभी जोड़ बड़े कठिन होते | हैं ! लेकिन यह और भी कठिन जोड़ था। दुर्घटना से ही कभी ऐसा होता है कि पति-पत्नी का जोड़ कठिन न हो, सामान्यतया तो कठिन होता ही है। लेकिन यह आइंस्टीन का जोड़ तो और मुश्किल था । आइंस्टीन तो सिर्फ गणित की भाषा ही समझता था । और कविता और गणित की भाषा में जितना फासला हो सकता है, उतना किस भाषा में होगा ?
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फ्राने, उसकी पत्नी ने शादी के बाद जो पहला काम चाहा, वह | यह कि आइंस्टीन को कुछ अपनी कविता सुनाए। उसने एक गीत लिखा था, उसने उसे सुनाया। आइंस्टीन आंख बंद करके बैठ गया। फ्रा ने समझा कि वह बहुत चिंतन कर रहा है उसके गीत पर । आखिर उसने आंख खोली और उसने कहा कि यह पागलपन है, | दुबारा मुझे मत इस तरह की बात बताना । उसकी पत्नी ने कहा, | पागलपन ! आइंस्टीन ने कहा, मैंने बहुत सोचा... ।
क्योंकि फ्रा ने एक प्रेम का गीत लिखा था, जिसमें उसने अपने प्रेमी को, अपने प्रेमी या प्रेयसी के भाव को, चेहरे को, चांद से तुलना की थी। आइंस्टीन ने कहा, मैंने बहुत सोचा। चांद और आदमी के चेहरे में कोई भी संबंध नहीं है। कहां चांद, पागल ! | अगर आदमी के ऊपर रख दो, तो आदमी का पता ही न चले, अगर | उसका सिर बना दो तो । और चांद के सौंदर्य का मैं सोचता हूं, तो वहां तो सिवाय खाई - खड्ड के और कुछ है नहीं । आदमी के चेहरे से चांद का क्या संबंध है?
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फ्रा ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैंने समझ लिया कि हम दो अलग जातियों के प्राणी हैं और यह बातचीत आगे चलानी उचित नहीं है। यह बंद ही कर देनी चाहिए। यह विषय ही उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि अगर सिद्ध करने जाओ, तो आदमी के चेहरे और चांद में कोई संबंध नहीं सिद्ध हो सकता। लेकिन फिर भी कभी कोई चेहरा चांद की याद दिलाता है। और कभी चांद किसी चेहरे की भी याद दिलाता है। लेकिन वह कोई और ही बात है सौंदर्य की। उसका गणित से कोई संबंध नहीं है, माप से कोई संबंध नहीं है।
ईश्वर को जब भी हम मापने चलते हैं, तभी हम आकार देते हैं। और जब भी हम पूछते हैं, कहां है ईश्वर ? कैसा है ईश्वर ? क्या है | उसका रूप ? क्या है उसका रंग ? क्या है उसकी आकृति ? तब हम | गलत सवाल पूछ रहे हैं। सब आकृतियां जिसकी हैं, और सब रूप
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