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8 गीता दर्शन भाग-
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अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। | हम समझ लें, तो काल की अक्षरता और उसका अक्षय स्वरूप अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ।। ३३ ।। हमारे खयाल में आ जाए। . मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
जो भी है, दूसरे क्षण वही नहीं रह जाता है। कीर्तिः श्रीर्वाक्व नारीणां स्मृतिमेधा धृतिः क्षमा ।। ३४ ।। यूनान में विचारक हुआ है, हेराक्लतु। हेराक्लतु ने कहा है, एक
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् । | ही नदी में दो बार उतरना असंभव है। यू कैन नाट स्टेप ट्वाइस इन मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ।। ३५ ।।। | दि सेम रिवर। कैसे उतरिएगा एक ही नदी में दो बार? जब दुबारा तथा मैं अक्षरों में अकार और समासों में द्वंद्व नामक समास आप उतरने जाएंगे, नदी बह चुकी है। जिस जल को आपने पहली हूं, तथा अक्षय काल और विराट स्वरूप सबका बार स्पर्श किया था, अब आप उसे दुबारा स्पर्श न कर पाएंगे। धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूं।
लेकिन हेराक्लतु ने कोई अतिशयोक्ति नहीं की। यह ओवर और हे अर्जुन, मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु और आगे स्टेटमेंट नहीं है, अंडर स्टेटमेंट है। उसने कुछ कहा, वह कहा जाना होने वालों की उत्पत्ति का कारण हूं तथा स्त्रियों में कीर्ति, चाहिए उससे कम है। सचाई तो यह है कि यू कैन नाट स्टेप ईवेन
श्री, वाक्, स्मृति, मेवा, धृति और क्षमा हूं। वंस इन दि सेम रिवर। एक बार भी एक ही नदी में उतरना असंभव तथा मैं गायन करने योग्य श्रुतियों में बृहत्साम और छंदों में है। क्योंकि जब आपका पैर नदी की ऊपर की सतह को छूता है, गायत्री छंद तथा महीनों में मार्गशीर्ष महीना और ऋतुओं में | तब तक नीचे का पानी बह चुका; और जब आपका पैर एक कदम वसंत ऋतु मैं हूं।
नीचे जाता है, तब तक ऊपर का पानी बह चुका। नदी बह रही है, बहने का नाम नदी है। बहाव सतत है।
जीवन की नदी भी वैसी ही सतत है, वैसा ही बहाव है। जीवन अक्षरों में अकार और समासों में द्वंद्व नामक समास हूं | में भी दुबारा उसी जगह खड़े होना असंभव है। और दुबारा वही तथा अक्षय काल और विराट स्वरूप सब का | देखना भी असंभव है, जो देखा। हमें भ्रांति लेकिन होती है। हम
धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूं। हे अर्जुन, मैं सोचते हैं, रोज वही सूरज निकलता है। सबका नाश करने वाला मृत्यु और आगे होने वालों की उत्पत्ति का | | वही सूरज रोज नहीं निकल सकता है। सूरज रूपांतरित हो रहा कारण हूं।
है प्रतिपल। सूरज जलती हुई आग है। और जैसे लपटें प्रतिपल कुछ नए प्रतीक, कुछ नई दिशाओं से, वही अर्जुन को फिर-फिर बदल रही हैं, जैसे दीए की लौ प्रतिपल बदल रही है, ऐसा ही सूरज कहने की कोशिश कृष्ण की है। सत्य तो एक है, समझाया बहुत भी प्रतिपल बदल रहा है। प्रकार से जा सकता है। और जो समझ सकते हैं, वे बिना प्रकार के सांझ आप एक दीया जलाते हैं, सुबह सोचते हैं, उसी दीए को भी समझ ले सकते हैं। और जो नहीं समझ पाते, अनंत-अनंत बुझा रहे हैं, तो आप गलती में हैं। सांझ जो दीया जलाया था, वह प्रकारों से भी समझाने से कुछ हल नहीं होता है। फिर भी कृष्ण जैसे | तो न मालूम कितनी बार बुझ चुका। लौ प्रतिपल खो रही है आकाश व्यक्ति सतत चेष्टा करते हैं-एक द्वार से न दिखाई पड़े, दूसरे द्वार | में; नई लौ उसकी जगह स्थापित होती चली जा रही है। लेकिन यह से; दूसरे द्वार से न दिखाई पड़े, तीसरे द्वार से। कृष्ण जैसे व्यक्तियों | इतनी तीव्रता से हो रहा है, यह लौ का प्रवाह इतना त्वरित है कि दो का श्रम अथक है, और धैर्य अनंत है।
लौ के बीच में आप खाली जगह नहीं देख पाते। इसलिए सोचते हैं, इस सूत्र में कृष्ण कहते हैं, मैं अक्षय काल।
एक ही लौ रातभर जलती रही; सुबह हम उसी दीए को बुझा रहे हैं। अस्तित्व में सभी कुछ क्षणिक है और सभी कुछ क्षीण हो जाता अगर उसी दीए को सुबह बुझा रहे हैं, तो रातभर जो तेल जला, है। सभी कुछ परिवर्तित होता है। कुछ भी शाश्वत नहीं मालूम | वह कहां गया? रातभर तेल जलता रहा और दीए की लौ बदलती होता, सिवाय परिवर्तन के। सब कुछ परिवर्तित होता है, सिवाय | रही। सुबह आप दूसरी ही लौ बुझा रहे हैं। वही लौ नहीं, जो आपने परिवर्तन के। सब कुछ बदल जाता है, एक बदलाहट ही स्थिर बात | | सांझ जलाई थी। निश्चित ही, उसी श्रृंखला की लौ है, उसी लौ की है। जो भी है, वह दूसरे क्षण भी वही नहीं रह जाता है। इसे थोड़ा संतान है, लेकिन वही लौ नहीं है।
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