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गीता दर्शन भाग-5008
जाएगी। किसी ने कहा, तो चलें चांद पर बैठ जाएं। तो ईश्वर ने | | ही नहीं। जिसको आप जानते हैं भीतर, वह आपका मन है, वह कहा, चांद पर पहुंचने में कितनी देर लगेगी! जल्दी ही आदमी चांद | | वस्तुतः भीतर नहीं है, वह वास्तविक इनरनेस नहीं है। जिसको आप पर उतर जाएगा। मुझे कोई ऐसी जगह बताओ, जहां आदमी पहुंच जानते हैं मन, वह आपका आंतरिक अंतस्तल नहीं है। वह केवल ही न पाए।
बाहर की परछाईं है, जो आपके भीतर इकट्ठी हो गई है। वे केवल तब एक बूढ़े देवता ने ईश्वर के कान में कहा। ईश्वर ने कहा, बाहर से बनी हुई प्रतिक्रियाएं हैं, जो आपके भीतर इकट्ठी हो गई हैं। बिलकुल ठीक। यह बात जंच गई। और देवताओं ने पूछा कि ऐसा समझें कि आप जिसको मन कहते हैं, वह बाहर से ही आए कौन-सी है वह बात? ईश्वर ने कहा, अब तुम उसको पूछो ही हुए प्रभावों का जोड़ है। वह भीतर नहीं है। मन के भी भीतर आप मत। क्योंकि लीक आउट हो जाए, आदमी तक पहुंच जाए, तो हैं। अगर मैं आपको देखता हूं, तो बाहर एक दुनिया है। एक दुनिया खतरा हो सकता है।
| मेरे बाहर है। फिर मैं भीतर आंख बंद करता हूँ. तो भीतर विचारों उस बूढ़े ने ईश्वर के कान में कहा कि आप आदमी के ही भीतर की एक दुनिया है। वह भी मुझसे बाहर है। क्योंकि उसको भी मैं छिप जाइए। यह वहां कभी नहीं पहुंच पाएगा। एवरेस्ट चढ़ लेगा, | देखता हूं भीतर। तो विचार मुझे दिखाई पड़ते हैं; क्रोध, कामवासना चांद पर उतर जाएगा, भीतर खुद के...। ईश्वर ने कहा, यह बात मुझे दिखाई पड़ती है। जैसे आप मुझे दिखाई पड़ते हैं, ऐसे ही जंच गई।
विचारों की भीड़ भीतर दिखाई पड़ती है। वह भी मुझसे बाहर है। और कथा है कि तब से ईश्वर आदमी के भीतर छिप गया है। | मेरे शरीर के भीतर है, लेकिन मुझसे बाहर है। और तब से आदमी ईश्वर से शिकायत करने में असफल हो गया | आप मुझसे बाहर हैं। आंख बंद करता हूं, आपकी तस्वीर मुझे है। खोजता है बहुत, लेकिन मिल नहीं पाता कि उससे शिकायत भीतर दिखाई पड़ती है, वह भी मुझसे बाहर है। और वह तस्वीर कर दे, कि कोई प्रार्थना कर दे, कि कोई स्तुति कर दे। आपकी है। आपने अपने भीतर कभी कोई एकाध तस्वीर देखी है,
भीतर जाना--उस भीतर जाने के लिए कृष्ण धीरे-धीरे अर्जुन | | जो बाहर से न आई हो? आपने अपने भीतर कभी कोई एकाध को एक-एक कदम अनेक-अनेक इशारों को देकर आखिरी जगह | | विचार देखा, जो बाहर से न आया हो? आपने भीतर ऐसा कुछ भी ले आए हैं, जहां वे कहते हैं, अर्जुन, हे धनंजय, पांडवों में मैं तुझमें देखा है, जो बाहर का ही प्रतिफलन न हो? हूं। तू अपने में ही देख ले। मत पूछ कि क्या मैं भाव करूं। मत तो फिर से खोज करें। आप अपने भीतर की जांच करें, तो आप पछ कि कहां मैं खोजं। सच ही खोजना चाहता है. तो मैं तेरे भीतर पाएंगे. वह तो सब बाहर की ही कतरन. बाहर का ही कचरा. बाहर मौजूद हं, तू वहीं देख ले, वहीं खोज ले।।
का ही जोड़ है। तो यह फिर भीतर नहीं है। यह बाहर का ही हाथ हम सबको भी भरोसा नहीं आता इस बात का कि परमात्मा | है, जो आपके भीतर प्रवेश कर गया है। अगर आपको अंतस्तल हमारे भीतर मौजूद है। आएगा भी नहीं। अगर कोई हमसे कहे कि को जानना है, तो थोड़ा और पीछे चलना पड़े।
शैतान आपके भीतर मौजूद है, तो हम थोड़ा मान भी लें। क्योंकि कृष्ण उसी की बात कर रहे हैं, कि धनंजय, पांडवों में मैं तेरे हमारा अपने से जो परिचय है, उससे शैतान का तो तालमेल बैठ भीतर इसी समय मौजूद हूं। जाता है। लेकिन कोई हमसे कहे कि परमात्मा आपके भीतर है, तो | लेकिन भीतर का अनुभव मन से नहीं होता, भीतर का अनुभव हम सोचते हैं, कोई मेटाफिजिकल, कोई ऊंचे दर्शन की बात चल | तो साक्षी से होता है। भीतर का अनुभव तो ज्ञाता से होता है। भीतर रही है। इसमें कुछ है नहीं सार।
का अनुभव तो द्रष्टा से होता है। जो अपने मन को भी देखने में परमात्मा, मेरे भीतर! हम किसी के भी भीतर मानने को राजी हो समर्थ हो जाता है, वह भीतर के अनुभव को उपलब्ध होता है। और जाएं, खुद के भीतर मानने में बड़ी तकलीफ होगी। क्योंकि हम जिसे भीतर का अनुभव हो जाए, उसे फिर वसंत में देखने जाने की भीतर अपने जानते हैं कि क्या है। भीतर के चोर को हम जानते हैं। जरूरत नहीं, उसे फिर कामधेनु में देखने की जरूरत नहीं। फिर उसे भीतर के बेईमान को हम जानते हैं। भीतर के व्यभिचारी को हम | | गायत्री छंद में खोजने की जरूरत नहीं। फिर तो सभी जगह उसी का जानते हैं। कैसे हम मान लें कि परमात्मा हमारे भीतर है। छंद है। फिर तो सभी जगह उसी का वसंत है।
लेकिन इसका सिर्फ एक ही मतलब है कि आप भीतर को जानते | एक बात खयाल में ले लें। जब तक हमें भीतर परमात्मा नहीं
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