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- गीता दर्शन भाग-58
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । | है कि यह सृष्टि ठीक वैसे ही है, जैसे मकड़ी अपने ही भीतर से न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् । । ३९ ।। । | जाले को निकालकर फैलाती है। यह जो इतना विस्तार है, यह
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप । परमात्मा से वैसे ही निकलता और फैलता है, जैसे मकड़ी का जाला एष तद्देशतः प्रोक्तो विभूतेविस्तरो मया।। ४०।। उसके भीतर से निकलता और फैलता है। यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
यह विस्तार उसका ही विस्तार है। यह विस्तार उससे पृथक नहीं तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसंभवम् ।। ४१।। है। और एक क्षण को भी पृथक होकर इसका कोई अस्तित्व नहीं ___अथवा बहुनतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । हो सकता। यह है उसकी ही मौजूदगी के कारण। वह इसमें समाया विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।। ४२ ।। है, इसीलिए इसका अस्तित्व है। वह मौजूद है, इसीलिए यह मौजूद
और हे अर्जुन, जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है वह है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम ईश्वर को अस्तित्व का भी में ही हं, क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत पर्यायवाची मानें। अस्तित्व ही ईश्वर है। नहीं है कि जो मेरे से रहित होवे।
इस बात से तो विज्ञान भी राजी होगा। इस बात से तो नास्तिक हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियों का अंत नहीं है। यह तो मैंने | भी राजी हो जाएगा। लेकिन नास्तिक या वैज्ञानिक कहेगा, फिर अपनी विभूतियों का विस्तार तेरे लिए संक्षेप से कहा है। | ईश्वर शब्द के प्रयोग की कोई जरूरत नहीं; प्रकृति काफी है, जगत
इसलिए हे अर्जुन, जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात | काफी है, अस्तित्व काफी है। और यहां धर्म के जगत के लिए ऐश्वर्ययुक्त एवं कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, विशेष शब्द के प्रयोग का अर्थ समझ लेना उचित है। उस-उस को तू मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुई जान । | अस्तित्व काफी है कहना, लेकिन अस्तित्व से हमारे हृदय में अथवा हे अर्जुन, इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन है! | कोई भी आंदोलन नहीं होता। अस्तित्व से हमारे प्राणों में कोई चीज मैं इस संपूर्ण जगत को अपनी योग-माया के एक अंशमात्र संचारित नहीं होती। अस्तित्व से हमारे हृदय की वीणा पर कोई चोट से धारण करके स्थित हूं। इसलिए मेरे को ही तत्व से नहीं पड़ती। अस्तित्व और हमारे बीच कोई संबंध निर्मित नहीं जानना चाहिए।
होता। ईश्वर कहते ही हमारे हृदय में गति शुरू हो जाती है। ईश्वर शब्द इसलिए प्रयोजित है। क्योंकि ईश्वर है, इतना काफी नहीं है
कहना, आदमी ईश्वर तक पहुंचे, यह भी जरूरी है। । र हे अर्जुन, जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह ___ धर्म केवल तथ्यों की घोषणा नहीं है, वरन लक्ष्यों की घोषणा भी जा मैं ही हूँ, क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत है। यहीं विज्ञान और धर्म का फर्क है। धर्म केवल तथ्यों की, फैक्ट्स नहीं है कि जो मेरे से रहित हो।
की घोषणा नहीं है। क्या है, इतने से ही धर्म का संबंध नहीं है। क्या इस सूत्र पर कृष्ण ने बार-बार जोर दिया है। बहुमूल्य है, और होना चाहिए, क्या हो सकता है, उससे भी धर्म का संबंध है। निरंतर स्मरण रखने योग्य इसलिए भी। जब भी हम ईश्वर के संबंध ___ अगर बीज हमारे सामने पड़ा हो, तो विज्ञान कहेगा, यह बीज में विचार करते हैं, तब ऐसा ही विचार में प्रतीत होता है कि ईश्वर है; और धर्म कहेगा, यह फूल है। धर्म उसकी भी घोषणा करेगा जो
अस्तित्व से कुछ और है। यह विचार की भूल के कारण होता है; हो सकता है, जो होना चाहिए। और जो नहीं हो पाएगा, तो बीज यह विचार के स्वभाव और विचार की प्रक्रिया के कारण होता है। के प्राण कुंठित, पीड़ित और परेशान रह जाएंगे। बीज अतृप्त रह जब भी विचार का उपयोग किया जाता है, तो चीजें दो में टूट जाती | जाएगा, अगर फूल न हो पाया तो। और बीज के प्राणों में एक गहरा हैं। विचार वस्तुओं को विश्लिष्ट करने का मार्ग है। तो जब भी हम | विषाद, एक संताप रह जाएगा, एक अधूरापन। । सोचते हैं ईश्वर के संबंध में, तो जगत अलग और ईश्वर अलग हो | _ विज्ञान इतना कहकर राजी हो जाता है कि अस्तित्व है। धर्म जाता है। तो हम कहते हैं सृष्टि, तो स्रष्टा अलग हो जाता है। कहता है, ईश्वर और अस्तित्व समानार्थी हैं, फिर भी हम अस्तित्व
लेकिन वस्तुतः अनुभूति में सृष्टि और स्रष्टा पृथक-पृथक नहीं नहीं कहते, कहते हैं, ईश्वर है। ईश्वर कहते ही बीज और फूल, हैं, वे एक ही हैं। इसलिए पुराने अनुभव करने वाले लोगों ने कहा । दोनों की एक साथ घोषणा हो जाती है। जब हम कहते हैं, अस्तित्व
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