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ॐ मृत्यु भी मैं हूं 8
प्रकृति होती है; आप नहीं होते।
है-और एक-एक अंग पार्वती के शरीर के गिरते गए। जहां-जहां __ और इसलिए समस्त धर्म यह मानकर चलते हैं कि जब तक कोई | | उसके अंग गिरे हैं, वहीं-वहीं भारत के तीर्थ निर्मित हुए हैं, ऐसी व्यक्ति कामवासना के पार न चला जाए, तब तक प्रकृति की कथा है। जितने तीर्थ हैं, वह पार्वती का जहां-जहां एक-एक अंग परवशता नष्ट नहीं होती, तब तक प्रकृति उसे पकड़े ही रखती है। गिरा, वहां-वहां एक-एक तीर्थ निर्मित हआ है। और तब प्रकृति आपको मूर्छित कर लेती है। और उस मूर्छा में | मृत्यु का, विनाश का जो देवता है, वह जीवन के प्रति इतने मोह आप द्वार बन जाते हैं। उस द्वार में चाहे आप मां हों और चाहे पिता | | और इतनी आसक्ति और इतने लगाव से भरा हुआ है! और नटराज हों, आप इंस्ट्रमेंटल हैं, साधन मात्र हैं। जीवन आपका साधन की की तरह हमने उसे चित्रित किया है, नाचता हुआ! जरूर सोचने भांति उपयोग करता है और जन्म लेता है। आप स्रष्टा नहीं हैं, सिर्फ | जैसा है। क्योंकि विनाश के देवता को इस भाषा में हमें चित्रित नहीं उपकरण हैं।
करना चाहिए। उचित होता कि हम कहते विराग, वैराग्य, सब तरह कृष्ण कह रहे हैं कि जीवन भी तेरे द्वारा नहीं आता और मृत्यु भी से रूखा-सूखा व्यक्तित्व हम निर्मित करते। शंकर का वैसा तेरे द्वारा नहीं आती। जीवन भी मेरे द्वारा है और मृत्यु भी मेरे द्वारा | | व्यक्तित्व नहीं है। बहुत रसभीना है। बहुत रस से डूबा हुआ है। है। इसलिए तू बीच में चिंता में पड़ता है व्यर्थ ही। इसलिए तू बीच | और जीवन के प्रति इतने राग से भरा हुआ व्यक्तित्व है! यह विरोध में उदास होता है व्यर्थ ही। इसलिए बीच में तू कर्ता बनता है व्यर्थ | मालूम पड़ता है। ही। तू कर्ता है नहीं।
लेकिन इस विरोध में ही भारत की अंतर्दृष्टियां छिपी हैं। भारत कृष्ण की सारी शिक्षा का सार अगर अर्जुन को एक शब्द में कहा | | मानता है कि सभी विरोधी चीजें संयुक्त होकर ही जीवन को निर्मित जा सके, तो वह यह है कि तू अपने को उपकरण से ज्यादा जानता | करती हैं। है, तो गलती करता है। तू मात्र एक उपकरण है, एक इंस्ट्रमेंट है। इसे हम ऐसा समझें कि आपके भीतर जो राग की क्षमता है, वही जीवन की विराट शक्ति तेरे भीतर काम करती है, तू सिर्फ साधन | | आपकी मृत्यु की क्षमता भी है, तब जरा आपको समझ में आएगा। है। और साधन से ज्यादा तू अपने को मत मान। तू एक बांसुरी है, | | आपके भीतर जो वासना है, वही मृत्यु भी है। अगर आपकी जिसमें से जीवन गीत गाता है। तू बांसुरी से ज्यादा अपने को मत | | कामवासना बिलकुल खो जाए, तो आपके भीतर से मृत्यु का भय मान। तू एक बांस की पोंगरी है, जिससे जीवन प्रकट होता है। भी बिलकुल खो जाएगा। लेकिन तू जन्मदाता नहीं है और न ही तू मृत्युदाता है। जन्म भी मैं | हमें लगता है कि हम कामवासना से जीवन को जन्म देते हैं। हूं, जीवन भी मैं हूं और मृत्यु भी मैं हूं।
निश्चित ही, जब भी आप अपनी कामवासना से एक नए जीवन यहां यह भी समझ लेने जैसा है कि हमने शंकर को विनाश का, को जन्म दे रहे हैं, तब आपको पता नहीं कि आप अपनी मृत्यु को प्रलय का, अंतिम अध्याय जो होगा जीवन का, उसका सभापति, | निकट भी ला रहे हैं। आपकी जो ऊर्जा जीवन के काम आ रही है, उसका अध्यक्ष माना। उनकी अध्यक्षता में जीवन समाप्त होगा, | उतनी ही ऊर्जा रिक्त होकर आपकी मृत्यु का भी निर्माण कर रही प्रलय में डूबेगा। लेकिन शंकर के व्यक्तित्व को मृत्यु से हमने जरा है। जीवन एक सतत संतुलन है। भी नहीं जोड़ा। शंकर को हमने नाचता हुआ नटराज की तरह इसलिए जो लोग अमरत्व की तलाश में निकले. उन्होंने ब्रह्मचर्य चित्रित किया है। शंकर को हमने एक महान प्रेमी की तरह चित्रित को आधार बना लिया। उसके बनाने का कारण था। क्योंकि यह किया है।
बात साफ समझ में आ गई कि मृत्यु का द्वार अगर कोई है, तो वह पार्वती की मृत्यु हो गई, तो कथा है कि शंकर उसकी, पार्वती | कामवासना है। काम ही उसका दरवाजा है। इसे मैं कुछ उदाहरण की लाश को लेकर बारह वर्ष तक घूमते रहे। लाश को लेकर! | | दूं तो खयाल में आ जाए। आदमियों में उदाहरण खोजने जरा कठिन लाश ही रह गई, प्राण तो चले गए; लेकिन ऐसा सघन लगाव था, | | हैं, क्योंकि आदमी के लिए यह घटना क्षण-क्षण घटती है और लंबे ऐसा प्रेम था, ऐसा मोह था गहरा कि उस लाश को कंधे पर लेकर फासले पर घटती है। लेकिन अगर हम पशुओं और पक्षियों और वे घूमते रहे कि शायद कोई जिला दे।।
कीड़े-मकोड़ों के जीवन में उतरें, तो कई बहुत अदभुत मिसालें हैं। कथा बड़ी मधुर है। लाश सड़ती गई-बारह वर्ष लंबा वक्त जैसे अफ्रीका में एक मकोड़ा होता है। वह एक ही बार संभोग
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