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गीता दर्शन भाग-5
केवल सुनते हैं और करते नहीं। उनसे बड़ी सुविधा रहती है। | गुरु अड़चन नहीं आती उन लोगों से, जो रोज सुनकर चले जाते हैं और कभी करते नहीं। क्योंकि वे झंझट नहीं देते। ... यह बुद्ध जिस गुरु के पीछे पड़ गया, वही गुरु दिक्कत में आ गया। क्योंकि गुरु ने जो कहा, वही इसने करके दिखाया। और करने के बाद कहा कि अभी मुझे मिला नहीं ! और इसके करने में तो इतनी निष्ठा थी, और इसका करना तो इतना वास्तविक था कि गुरु भी यह हिम्मत नहीं जुटा सकता था कहने की कि तुमने गलत किया या पूरा नहीं किया। गुरु से भी ज्यादा कुशल था इसका करना। तो गुरु हाथ जोड़ लेते । गौतम को कहते कि जो मैं जानता था, वह मैंने करवा दिया। अगर इससे नहीं होता, तो मुझे क्षमा करो, कहीं और जाओ!
अगर आप करने लगें, तो दुनिया में गुरुओं की संख्या एकदम कम हो जाए। एकदम! दुनिया में जो इतनी भीड़ है गुरुओं की, वह आपकी कृपा से है। जो-जो गुरु कहते हैं, अगर आप करके बता दें, तो गुरु भाग खड़े हों, क्योंकि उनको भी पता चल जाए कि कुछ हो नहीं रहा है। आप कभी करते नहीं, इसलिए गुरु की कभी परीक्षा नहीं हो पाती कि वह जो कह रहा है, वह हो भी सकता है या नहीं। वह कहे चला जाता है, क्योंकि कोई करने वाला भी नहीं आता।
बुद्ध से गुरुओं ने क्षमा मांगी। वह बड़ी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि क्षमा करो। और अगर कभी तुम्हें मिल जाए, तो हमें भी खबर कर देना। लेकिन अब यहां से तुम जाओ! क्योंकि हम जो जानते थे, हम करा सकते थे, वह हमने करा दिया। और तुमसे ज्यादा योग्य शिष्य हमने कभी पाया नहीं। लेकिन मजबूरी है, इसके आगे हमें कुछ पता नहीं।
तो बुद्ध, जितने गुरु उस समय उपलब्ध हो सकते थे बिहार में, एक-एक गुरु के द्वार पर भटक लिए। छः साल में उन्होंने सब कर डाला, जो भी किसी ने कहा । कभी नहीं कहा कि इससे क्या होगा! किया पहले। और जब नहीं हुआ तो कहा कि कर लिया मैंने पूरा और हो नहीं रहा है।
छः साल के अथक श्रम के बाद वे उस जगह पहुंच गए, जहां सांख्य शुरू होता है, योग समाप्त हो जाता है। छः साल के बाद थककर एक दिन सुबह वे स्नान करने निरंजना नदी में उतरे । शरीर बिलकुल कृश हो गया है। उपवास लंबे किए हैं। अनाहार किया है । शरीर को तपाया है, सुखाया है, जलाया है। निरंजना से निकलते वक्त वे इतने अशक्त थे कि नदी की धार को पार न कर
सके और तट पर चढ़ने में मुसीबत मालूम पड़ी। पैर जवाब दे गए। एक वृक्ष की जड़ को पकड़कर रुके रहे।
उस क्षण उन्हें खयाल आया कि शरीर को सताकर, गलाकर, सब करके कुछ पाया नहीं। और हालत यह हो गई कि इस छोटी-सी नदी निरंजना को मैं पार नहीं कर पाता हूं, और भवसागर को पार करने का विचार कर रहा हूं! यह नहीं होगा। किसी तरह नदी के बाहर निकले।
तो जिस तरह छः साल पहले उन्होंने राज्य छोड़ दिया था, महल छोड़ दिया था, उस दिन उन्होंने करना छोड़ दिया। योग छोड़ दिया। त्याग छोड़ दिया। उस दिन उन्होंने सब जो छः साल में किया था, वह भी छोड़ दिया। भोग पहले छोड़ चुके थे, त्याग भी छोड़ दिया। धन की दौड़ पहले छोड़ चुके थे, धर्म की दौड़ भी छोड़ दी। उस | दिन उन्होंने तय कर लिया कि अब कुछ करना ही नहीं है । अब मैं जो हूं, हूं। और नहीं हूं, तो नहीं हूं।
मिला तो नहीं करने से। तो यह तो वे सोच ही नहीं सकते थे कि न करने से मिल जाएगा। जब करने से नहीं मिला, यह खयाल भी नहीं आ सकता था कि न करने से मिल जाएगा। इसका तो उन्हें भी पता नहीं था । छोड़ दिया। लेकिन एक बात तय हो गई कि अब कुछ करना नहीं है। अब जो है, ठीक है । स्वीकार है। जैसा भी हूं। अज्ञानी, तो अज्ञानी । अंधेरा, तो अंधेरा । पाप, तो पाप । जो भी है, जैसा भी है, स्वीकार है। अब मुझे कुछ पाना नहीं, कुछ खोजना नहीं।
ऐसी चित्त की दशा बड़ी अनूठी है। उस रात जब वे सोए, तो शायद जमीन पर इस तरह की शांति में बहुत कम लोग कभी-कभी सोते हैं । कोई तनाव ही न था । कुछ पाना नहीं था, तो कोई तनाव भी नहीं था। सुबह उठकर पाने की कोई आकांक्षा ही नहीं थी। सुबह हो तो ठीक, न हो तो ठीक। भविष्य मिट गया। उस रात, बुद्ध ने बाद में कहा है, कि मैं पहली दफा सोया, एक फूल की तरह, हल्का । कुछ नहीं था । न पीछा रहा; सब अतीत मिट गया; सब | बेकार था । और सब भविष्य मिट गया, क्योंकि अब कुछ पाने की इच्छा न थी ।
सुबह पांच बजे भोर उनकी नींद खुली। जब भीतर कोई भी तनाव न हो, तो आंख निर्मल हो जाती है। जब भीतर कोई तनाव न हो, तो आंखों पर से सब धुआं खो जाता है। आंख शुद्ध हो जाती है, | साफ हो जाती है, पारदर्शी हो जाती है। आंख खुली उनकी। भोर का आखिरी तारा डूब रहा था। उस तारे को डूबता हुआ वे देखते
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