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- गीता दर्शन भाग-500
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् । | की तरह हैं-कहीं ठहरे हुए नहीं, कहीं रुकते नहीं, कहीं बंधते झपाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाहवी।।३१।। नहीं, कहीं कोई आसक्ति निर्मित नहीं करते—वही केवल पवित्रता सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
को उपलब्ध हो पाएगा। अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ।। ३२।। ___ पुराने अति प्राचीन समय से संन्यासी को प्रवाहवत जीवन व्यतीत और मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम | करने को कहा गया है। नदी की तरह बहता रहे। महावीर ने अपने हूं तथा मछलियों में मगरमच्छ हूं और नदियों में श्रीभागीरथी | संन्यासियों को कहा है कि वे तीन दिन से ज्यादा कहीं रुकें नहीं। तीन गंगा, जाह्नवी है।
| दिन के पहले हट जाएं। थोड़ा सोचने जैसा है। क्योंकि तीन दिन का और हे अर्जुन, सृष्टियों का आदि, अंत और मध्य भी में ही | यह राज महावीर को कैसे पता चला होगा, कहना मुश्किल है। हूं। तथा मैं विद्याओं में अध्यात्म-विद्या अर्थात ब्रह्म-विद्या लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि आदमी को किसी भी एवं परस्पर में विवाद करने वालों में तत्व-निर्णय के लिए | जगह मन के लगने में कम से कम तीन दिन से ज्यादा का समय किया जाने वाला वाद हूं।
| चाहिए। आप अगर एक नए कमरे में सोने जाएंगे, तो तीन रातें | आपको थोड़ी-सी बेचैनी रहेगी, चौथी रात आप ठीक से सो
| पाएंगे। कहीं भी किसी नई स्थिति को पुराना बना लेने के लिए कम में पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में राम हूं। | से कम तीन दिनों की जरूरत है। कम से कम। थोड़ा ज्यादा समय 1 इन प्रतीकों को थोड़ा हम समझें।
भी लग सकता है। वायु इस जगत में सर्वाधिक स्वतंत्र है। और स्वतंत्रता | | महावीर ने अपने संन्यासी को कहा है कि वह तीन दिन से ज्यादा ही पवित्रता है। वायु कहीं बंधी नहीं है, कहीं ठहरी नहीं है, कहीं | | एक जगह न रुके। इसके पहले कि कोई अपना मालूम पड़ने लगे, उसका लगाव नहीं है, कहीं उसकी आसक्ति नहीं है। वायु एक | | उसे हट जाना चाहिए। क्योंकि जहां लगा कि कोई अपना है, वहीं सतत गति है।
| जंजीर निर्मित हो जाती है। और जिसके प्राणों पर जंजीर पड़ जाती तो पहली बात, जहां भी लगाव होगा, वहीं अपवित्रता शुरू हो है, उन प्राणों में कुरूपता और दुर्गंध और सड़ांध शुरू हो जाती है। जाएगी। जहां भी आसक्ति होगी, जहां भी ठहरने का मन होगा, | डबरा बनना शुरू हो गया प्राणों का। जहां पड़ाव मंजिल बन जाएगा, वही अपवित्रता शुरू हो जाएगी। संन्यासी का अर्थ है, जो अपने को डबरा नहीं बनने देता। गृहस्थ
जीवन की सारी दुर्गंध, जीवन की सारी कुरूपता, जहां-जहां हम | | का इतना ही अर्थ है कि जो अपने को डबरा बनाने का पूरा आयोजन ठहर जाते हैं और जकड़ जाते हैं, वहीं से पैदा होती है। जीवन जहां | | कर लेता है। चाहे तो गृहस्थ भी प्रवाहित रह सकता है, लेकिन उसे भी प्रवाह को खो देता है, गति को खो देता है, और जहां ठहर जाता | | थोड़ी कठिनाइयां होंगी। उसे बहुत होश रखना पड़े, तो ही वह डबरा है, जड़ हो जाता है...।
बनने से रुक सकता है। अन्यथा सब चीजें धीरे-धीरे जम जाएंगी, जैसे नदी बहती है, तो नदी पवित्र होती है। और डबरा बहता | फ्रोजन हो जाएंगी और उनके बीच वह भी जम जाएगा। नहीं, अपवित्र हो जाता है। डबरे में भी वही जल है, जो नदी में है। | लेकिन हम सब तो यही कोशिश करते हैं कि जितने जल्दी जम लेकिन नदी में प्रवाह है, बहाव है, जीवन है। डबरा मृत है, मुर्दा | | जाएं, उतना अच्छा। जमने में सुविधा है, सुरक्षा है, कनवीनियंस है, कोई गति नहीं है। डबरा सड़ता है, दुर्गंधित होता है और नष्ट | है। गैर-जमे होने में असुविधा है, असुरक्षा है। रोज नए के सामने होता है। स्वभावतः, अपवित्र हो जाता है।
पड़ना पड़ता है, तो रोज नई बुद्धि की जरूरत पड़ती है। हम सब कृष्ण कहते हैं, पवित्र करने वालों में मैं वायु हूं। | जम जाना चाहते हैं। जमे हुए आदमी का पुरानी बुद्धि से काम चल
पहली बात, पवित्रता वहीं ठहरती है, जहां प्रवाह सतत हो। जाता है, नए की कोई आवश्यकता नहीं होती। पवित्रता वहीं ठहरती है, जहां कोई लगाव, जहां कोई रुकाव, जहां | | हम सब नए से भयभीत होते हैं। कुछ भी नया हो, तो चिंता पैदा कोई ठहराव न आ जाए। पवित्रता वहीं ठहरती है, जहां कोई होती है। क्योंकि पुराने के साथ कैसा व्यवहार करना, वह तो हम फिक्सेशन, प्राणों का अवरुद्ध होना न हो। जिसके प्राण भी वायु | जानते हैं; नए के साथ फिर से व्यवहार सीखना पड़ता है। पुराना
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