________________
ॐ गीता दर्शन भाग-50
कर सकता है। संभोग करते ही मर जाता है। एक ही बार संभोग इतनी सघन है कि सारे जगत का विनाश उसके द्वारा होगा, उसमें कर सकता है, लेकिन संभोग करते ही मर जाता है। वह मादा के | वासना भी इतनी ही सघन होगी। यह सघनता समतुल होगी। पार्वती ऊपर से मुर्दा ही उतरता है, जिंदा नहीं उतरता। लेकिन वैज्ञानिकों ने | उत्सुक थी। पागल थी। विवाह हुआ। लेकिन पिता राजी न थे। उसके संभोग का अध्ययन किया है और बड़े चकित हुए हैं। उनका शंकर का आकर्षण जीवन का आकर्षण है, लेकिन शंकर देवता खयाल है कि वह मकोड़ा एक संभोग में जितना सुख-जिसको मृत्यु के हैं। इस सूचना से, इस प्रतीक से हमने यह कहना चाहा है हम सुख कहते हैं—जितना सुख पाता है, उतना एक आदमी जीवन | कि जीवन और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। मृत्यु पीछे दिखाई पड़ती है में चार हजार संभोग करके भी नहीं पाता।
आती हई. जीवन अभी है। लेकिन जीवन आमंत्रण है और अंततः एक साधारण आदमी एक जीवन में कम से कम चार हजार मत्य की गोद ही हमारा विश्राम बनती है। संभोग कर सकता है। इसको अब जांचने के उपाय हैं। जब आप कृष्ण कहते हैं, शंकर मैं हूं। मृत्यु भी मैं हूं। विनाश भी मैं हूं। संभोग में होते हैं, तो आपके मस्तिष्क और आपके शरीर में विद्युत जीवन भी मैं हूं। ऐसे वे कहते हैं कि सारे द्वंद्व के भीतर मैं हूं। और के जो आंदोलन होते हैं, बिजली के जो आंदोलन होते हैं, उनको | जब दोनों द्वंद्व के भीतर एक ही अस्तित्व है, तो द्वंद्व का अर्थ खो नापने के अब यंत्र उपलब्ध हैं। कि कितने वोल्टेज, कितनी | जाता है, द्वंद्व व्यर्थ हो जाते हैं। फ्रीक्वेंसी की वेव्स आपके भीतर बिजली की घूमती हैं। और जब । | हीगल ने पश्चिम में डायलेक्टिक्स पर बहुत काम किया है, द्वंद्व
आप कहते हैं कि मुझे बहुत सुख मिला, तो वेव्स बताती हैं कि | पर। और हीगल ने कहा, सारे जगत का विकास द्वंद्वात्मक है, कितनी गति थी उनकी; जब आप कहते हैं कि कोई सुख नहीं मिला, I डायलेक्टिकल है। फिर मार्क्स ने इसी बात के आधार पर तो वेव्स बताती हैं कि कितनी गति थी उनकी। उस मकोड़े की | डायलेक्टिकल मैटीरियलिज्म, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और जितनी गति होती है वेव्स की, अब तक कोई आदमी नहीं बता | कम्युनिज्म को जन्म दिया। मार्क्स ने उसमें से छोटी-सी बात पकड़ पाया। लेकिन एक ही संभोग में उसकी मृत्यु हो जाती है। | ली और वह यह कि जैसे जीवन का विकास द्वंद्वात्मक है, वैसे ही
और भी पशुओं पर अध्ययन हुआ है। और अध्ययन यह कहता | | समाज का विकास भी द्वंद्वात्मक है। गरीब और अमीर की लड़ाई है है कि संभोग, कामवासना एक तरफ जीवन को जन्म देती है, दूसरी और द्वंद्व है। तरफ मृत्यु को। जीवन और मृत्यु इतने संयुक्त हैं, सब जगह! लेकिन न हीगल को खयाल है, न मार्क्स को, कि भारत और जिससे जीवन का जन्म होगा, उसी से मृत्यु का भी जन्म होगा। | भी गहरी बात करता है। मार्क्स तो बहुत उथली बात करता है,
इसलिए अगर हमने शिव को, शंकर को विनाश का और मृत्यु | समाज के अस्तित्व की ही। हीगल थोड़ा गहरा जाता है। और हीगल का देवता माना, तो हमने दूसरी तरफ उनके जीवन को बहुत रंगीन, | कहता है कि समस्त विकास द्वंद्वात्मक है। लेकिन भारत कहता है बहुत रस-भरा, बहुत मोहासक्त भी चित्रित किया है। | कि विकास ही नहीं, अस्तित्व ही द्वंद्वात्मक है। एक्झिस्टेंस इटसेल्फ
पार्वती के पिता राजी न थे कि शंकर को वर की तरह चुना जाए। | इज़ डायलेक्टिकल, सारा अस्तित्व ही द्वंद्व है। कौन मृत्यु के देवता को चुनने को राजी होगा! लेकिन सभी को | लेकिन द्वंद्व का अर्थ दो नहीं है। विपरीत दो नहीं, ऐसे दो, जो चुनना पड़ता है। मृत्यु का ही देवता चुनना पड़ता है। पिता राजी न दोनों भीतर गहरे में जुड़े हैं। जैसे नदी है और दो किनारों के बीच थे, यह स्वाभाविक था। कौन अपनी लड़की के लिए मृत्यु के देवता | बह रही है। हमें किनारे दो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन नदी के नीचे हम को चुनेगा! लेकिन कौन है ऐसा, जो मृत्यु के देवता के अतिरिक्त | गहरे में उतरें, तो जमीन संयुक्त है और जुड़ी है। और यह मजे की किसी और को चुन सकता है! और उपाय भी तो नहीं है। क्योंकि | बात है कि नदी एक किनारा हो, तो बह नहीं सकती, दो किनारे जन्म और मृत्यु संयुक्त हैं, और कामवासना मृत्यु का द्वार है। चाहिए। लेकिन दो किनारे भीतर एक हैं, दो नहीं हैं। और अगर
इसलिए पिता इनकार करते रहे कि यह शादी नहीं होनी है, यह | सचमुच ही दो किनारे दो हों, तो नदी दोनों के बीच की खाई में खो शादी नहीं करनी है। लेकिन पार्वती जिद्द पर थी, और उसे शंकर के | जाएगी, फिर भी नहीं बह पाएगी। .. सिवाय कोई भाता ही न था। स्वाभाविक है। क्योंकि जो मृत्यु का द्वार | इसे थोड़ा समझ लें, यह थोड़ा जटिल है। है, उसमें काम का आकर्षण भी इतना ही प्रबल होगा। जिसमें मृत्यु अगर एक किनारा हो, तो नदी बह नहीं सकती, दो किनारे
1134