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गीता दर्शन भाग-5
एक ही आदमी जिंदगी में दो-चार-पांच बार गीता का अर्थ करे, तो दो-चार-पांच अर्थ निकलेंगे, क्योंकि उसका मन बदलता चला
तो एक तो वे अर्थ हैं, वे कमेंट्रीज और टीकाएं हैं, जो मन से की गई हैं; उनका बहुत मूल्य नहीं है। वे कितनी ही गहरी हों, फिर भी छिछली होंगी, क्योंकि मन और बुद्धि का कोई गहरा होना होता ही नहीं। बुद्धि कितना ही शोरगुल मचाए, वह सतह पर ही होती है, गहरी कभी जाती नहीं। ध्यान गहरा जाता है।
तो एक तो उपाय यह है कि गीता के शब्दों को समझें, उनकी व्याख्याएं समझ लें, और तृप्त हो जाएं। उसका अर्थ हुआ कि आप गीता से चूक गए; गीता आपके काम न आई। शायद नुकसान भी हुआ, क्योंकि आपको भ्रम होगा कि आपने जान भी लिया । दूसरा रास्ता है कि ध्यान से प्रवेश करें और फिर गीता को समझें। और तब एक मजेदार बात घटती है। लोग मन से गीता को समझेंगे, वे गीता की भी हजार टीकाएं करेंगे। दो टीकाकार दुश्मन की तरह लड़ेंगे। मन से, तो गीता की भी हजार टीकाएं हो जाएंगी, और हर टीकाकार गीता का एक अर्थ करेगा और शेष को गलत कहेगा। अगर ध्यान से कोई प्रवेश करे, तो एक और दूसरी घटना घटती है, गीता का भी वही अर्थ होगा, बाइबिल का भी वही
होगा, कुरान का भी वही अर्थ होगा।
मन से कोई चले, तो गीता के हजार अर्थ होंगे। और ध्यान से कोई चले, तो दुनिया में जितनी गीताएं हैं, जितने धर्म-ग्रंथ हैं, उन सबका अर्थ एक हो जाएगा। ध्यान एक नया पर्सपेक्टिव, एक नया परिप्रेक्ष्य दे देता है; देखने का एक नया ढंग, जानने का, स्पर्श करने की एक नई व्यवस्था ।
इसलिए मैंने कहा, इस सूत्र को अब समझें, तो फर्क पड़ेगा । अगर हम पहले समझते, तो इसका अर्थ होता, वे मेरे में निरंतर मन लगाने वाले, तो इसका अर्थ होगा कि निरंतर ईश्वर को स्मरण करने वाले, निरंतर उसका नाम लेने वाले। और मेरे में ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन, मुझमें ही जो अपने को समर्पण कर देते हैं, ऐसे लोग, सदा मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जनाते हुए, एक-दूसरे को मेरा प्रभाव समझाते हुए, तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए संतुष्ट होते हैं और मुझमें ही निरंतर रमण करते हैं। तब इसका अर्थ बहुत साधारण होगा। जो कि भक्त प्रभु-चर्चा में, सत्संग में, ईश्वर का गुणगान करने में, ईश्वर की स्तुति करने में करते हैं। यह अर्थ ध्यान से बिलकुल बदल जाएगा। ध्यान इसकी सारी की सारी दिशा को मोड़ दे देता है।
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मेरे में निरंतर मन लगाने वाले का अर्थ ध्यान से जो जानेगा, उसको पता चलेगा, वही, जिसका कोई मन न रहा। क्योंकि परमात्मा में मन वही लगा सकता है, जिसका मन समाप्त हो जाए। अगर आपका मन जारी है, तो मन संसार में ही लगा रहेगा। आप बीच-बीच में परमात्मा का नाम ले सकते हैं, लेकिन मन संसार में ही लगा रहेगा।
इसलिए हम देखते हैं कि भक्तजन, तथाकथित भक्तजन मंदिरों बैठे हैं, पर आप इस भूल में मत रहना कि उनका मन वहां है। मंदिरों में बैठना आसान है; प्रभु का नाम उच्चार करना भी बहुत आसान है; लेकिन मन का वहां होना उतना आसान नहीं है ।
नानक के जीवन में उल्लेख है कि नानक एक गांव में आए। उस गांव के मुसलमान नवाब ने नानक को कहा कि सुना है मैंने, तुम कहते हो कि हिंदू-मुसलमान सब एक हैं! नानक ने कहा, एक हैं ही; मैं कहता हूं इसलिए नहीं। एक हैं, इसलिए मैं कहता हूं। तो उस नवाब ने कहा कि आज नमाज का दिन है, तो हमारे साथ मस्जिद में चलकर नमाज पढ़ो। सोचा उसने कि नानक इनकार करेंगे। एक हिंदू मस्जिद जाने से इनकार करेगा । नानक तो बड़ी खुशी से तैयार हो गए। नवाब थोड़ा चिंतित हुआ । उसने कहा, लेकिन ध्यान रखिए, नमाज में मेरे साथ सम्मिलित होना पड़ेगा। नानक ने कहा कि अगर तुम नमाज पढ़ोगे, तो मैं भी पढूंगा।
लेकिन नवाब न समझा कि यह बात गहरी हो गई। आप भी एकदम से न समझे होंगे कि इसमें क्या गहराई हो गई। नमाज शुरू हुई। नानक एक दीवाल के किनारे सटकर खड़े हो गए। नवाब बीच-बीच में झुककर और आंख खोलकर नानक को देखता है कि वे नमाज पढ़ रहे हैं कि नहीं पढ़ रहे हैं! और नानक नमाज नहीं पढ़ रहे हैं। तो नवाब को बहुत गुस्सा आने लगा। नमाज तो भूल गई, नानक पर गुस्सा आने लगा कि यह आदमी बेईमान है, धोखेबाज है। और उसने जल्दी-जल्दी प्रार्थना पूरी की, ताकि इस आदमी को ठीक कर सके।
प्रार्थना पूरी करने के बाद वह नानक पर टूट ही पड़ा। उसने कहा, तुम धोखेबाज हो । बेईमान हो। अपने वचन का भी कोई खयाल नहीं! तुमने कहा था कि नमाज पढूंगा, फिर तुमने पढ़ी नहीं ?
नानक ने कहा, मैंने कहा था, अगर तुम नमाज पढ़ोगे, तो मैं भी पढूंगा। लेकिन तुमने नमाज कहां पढ़ी? तुम हाथ-पैर से कवायद पूरी कर रहे थे नमाज की । व्यायाम तुम पूरा कर रहे थे। लेकिन मन तुम्हारा मेरी तरफ था, परमात्मा की तरफ नहीं। तो मैं तो बड़ी