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3 गीता दर्शन भाग-500
रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् । बहुत-बहुत मार्गों से उसकी तरफ इशारा किया है। किसी भी द्वार वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ।। २३ ।। | से आप पहंच जाएं. और किसी भी झरोखे से आपकी आंख उसकी
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् । तरफ खुल जाए, और कोई भी स्वर आपके हृदय की वीणा को छू सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ।। २४ ।। | ले। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप किस दिशा से उसे समझते हैं,
___महर्षीणां भूगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् । यही महत्वपूर्ण है कि आप समझ लें। यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ।। २५ ।। शायद कृष्ण ने जो कहा, उन्होंने जो प्रतीक चुने, अर्जुन का हृदय
और मैं एकादश रुद्रों में शंकर हूं और यक्ष तथा राक्षसों में | उन्हें नहीं पकड़ पाया होगा। वे और दूसरे प्रतीक चुनते हैं। धन का स्वामी कुबेर हूं, और मैं आठ वसु देवताओं में अग्नि || उन्होंने अर्जुन से कहा, और हे अर्जुन, मैं एकादश रुद्रों में शंकर
हूं तथा शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं। हूं और यक्ष तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूं। आठ वसु और पुरोहितों में मुख्य अर्थात देवताओं का पुरोहित बृहस्पति | देवताओं में अग्नि और पर्वतों में सुमेरु पर्वत हूं। मेरे को जान तथा हे पार्थ, मैं सेनापतियों में स्वामी कार्तिक कल उन्होंने कहा था कि मैं विष्णु हूं अदिति के पुत्रों में। विष्णु ___और जलाशयों में समुद्र हूं।
जीवन के प्रतीक हैं। जीवन को सम्हालने के; धारण करने के, और हे अर्जुन, मैं महर्षियों में भृगु और वचनों में एक अक्षर जीवन की नित जो धारा है, प्रतिपल उसे प्राण देने के, विष्णु स्रोत अर्थात ओंकार हूं तथा सब प्रकार के यज्ञों में जप-यज्ञ और | हैं। आज कृष्ण कहते हैं, मैं रुद्रों में शंकर हूं। शंकर मृत्यु के, प्रलय स्थिर रहने वालों में हिमालय पहाड़ हूं। | के, विनाश के प्रतीक हैं। यहां कुछ बातें समझ लेनी ज़रूरी होंगी।
और भारतीय प्रतिभा में कैसे अनूठे अंकुर कभी-कभी खिले हैं, वे
भी खयाल में आ सकेंगे। 27 नंत के अनंत हो सकते हैं प्रतीक। जो सब जगह है, | सारी पृथ्वी पर मृत्यु को जीवन का अंत समझा गया है, मृत्यु को 1 उसकी ओर सब दिशाओं से इशारा हो सकता है। जो | जीवन का शत्रु समझा गया है, मृत्यु को जीवन का विरोध समझा
अदृश्य है, अज्ञात है, तो जो भी हमें दृश्य है और जो | | गया है। भारत ने ऐसा नहीं समझा। मृत्यु जीवन की परिपूर्णता भी भी हमें ज्ञात है, उस सबसे उसकी तरफ छलांग लगाई जा सकती है। । | है, अंत ही मात्र नहीं। और मृत्यु जीवन की शत्रु दिखाई पड़ती है,
कृष्ण ने कल एक प्रयास किया, एक दिशा से उस अनंत की क्योंकि हमें जीवन का कोई पता नहीं है। अन्यथा मृत्यु मित्र भी है। ओर मार्ग को तोड़ने का। आज वे दूसरा प्रयास करते हैं। बहुत बार और मृत्यु कोई जीवन के बाहर से घटित होती हो, कोई विजातीय, ऐसा होता है, एक तीर चूक जाए, तो दूसरा लग सकता है। दूसरा कोई फारेन, कोई बाहर से हमला होता हो मृत्यु का, आक्रमण होता चूक जाए, तो तीसरा लग सकता है। तीर का लगना निशान पर इस हो, ऐसी भी भारत की मान्यता नहीं। मृत्यु भी जीवन का अंतरंग बात पर निर्भर करता है कि जिससे कही जा रही है बात, उसके हृदय भाग है। और जीवन का ही विकास है, उसकी ही ग्रोथ है। शंकर और उस बात में कोई ताल-मेल पड़ जाए।
विष्णु के विपरीत नहीं हैं, और विनाश सृजन का विरोध नहीं है। जटिलता बहुत प्रकार की है। जो बात आपसे मैं कहूं, हो सकता विनाश और सृजन एक ही घटना के दो पहलू हैं। है, इस क्षण आपके हृदय से मेल न खाए, कल मेल खा जाए। जो एक बच्चे का जन्म होता है, तो हम सोच भी नहीं सकते कि उस बात मैं आपको कहूं, आज आपकी समझ में ही न पड़े, और हो जन्म के साथ मृत्यु का भी प्रारंभ हो गया है। लेकिन प्रारंभ हो गया सकता था, क्षणभर पहले कही जाती और मेल खा जाती। | है। हम न सोच पाते हों, वह हमारे सोचने की कमी और असमर्थता
आपका मन एक तरलता है। वह प्रतिपल प्रवाह में है। जैसे नदी | है। लेकिन जन्म का दिन मृत्यु का दिन भी है। जिस दिन बच्चा पैदा बही जा रही हो, ऐसा ही आपका मन बहा जाता है। किस क्षण में, | हुआ, उसी दिन से मरना भी शुरू हो गया। यह एक वचन मैंने किस पके हुए क्षण में, कौन-सी बात आपके हृदय को चोट करेगी | | बोला, इस एक वचन के बोलने में भी आप थोड़ा मर गए हैं। और गहरी उतर जाएगी, इसका पूर्व निश्चय असंभव है। | आपके जीवन की धारा थोड़ी क्षीण हुई, कुछ समय चुक गया, आप इसलिए जिन्होंने भी उस परम सत्य की शिक्षा दी है, उन्होंने मृत्यु के और करीब पहुंच गए। बच्चा जब पहली सांस लेता है,
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