________________
8 गीता दर्शन भाग-500
जिस रहस्य को अनुभव कर पाते हैं, वह समाधि का ही रहस्य है। कारण अशिक्षा है, क्योंकि अशिक्षा आज न्यूनतम है। उसका गहरे
इसलिए हमने तो इस देश में क्षत्रिय को नहीं कहा था कि वह | | से गहरा कारण एक है कि किसी व्यक्ति को पता नहीं कि उसका जंगल भाग जाए समाधि के लिए।
प्रकार क्या है। और बिना प्रकार के पता के व्यक्ति अपना गंतव्य वही कृष्ण अर्जुन को भी समझा रहे हैं कि तेरी नियति, तेरा खोज रहा है। स्वभाव क्षत्रिय का है। तू अगर जीवन के परम उत्कर्ष को भी जो मेरी मंजिल हो ही नहीं सकती, वह मैं खोज रहा हूं। अगर पाएगा, तो युद्ध से ही पाएगा। भागकर तो तू जंग खा जाएगा। न पाऊं, तो मैं दुखी रहूंगा। और अगर पा लूं, तो भी दुखी होऊंगा, भागकर तो तू बेकार हो जाएगा। तू दूसरे के धर्म की तलाश कर क्योंकि वह मेरी मंजिल नहीं है। मैं अपनी मंजिल को खोजते हुए रहा है। उससे तू अपनी नियति को नहीं पा सकता है; वह तेरी | रास्ते में भी मर जाऊं, तो भी मुझे एक तृप्ति होगी। एक कदम भी डेस्टिनी नहीं है। तू युद्ध से ही...।
| मैं अपनी मंजिल के करीब पहुंचं, जो मेरी नियति है, मेरा स्वभाव और निश्चित ही, अर्जुन जैसा व्यक्ति युद्ध के गहन क्षण में ही | है, तो वह कदम मेरे लिए तृप्तिदायी हो जाएगा। लेकिन दूसरे की सत्य के क्षण को उपलब्ध होगा। जब चारों तरफ मृत्यु खड़ी होगी | मंजिल पर भी मैं पहुंच जाऊं, तो भी कोई तृप्ति होने वाली नहीं है।
और जब इस मृत्यु के बीच में भी बिना किसी भय के वह संघर्ष में क्योंकि तृप्ति का संबंध मंजिल से कम है, तृप्ति का संबंध आपसे रत होगा; जब संघर्ष प्रतिपल चिंता पैदा करता होगा, तब भी | ज्यादा है। जब आप और मंजिल में ताल-मेल बैठ जाता है, एक निर्विचार, तब भी मौन और ध्यानस्थ, निर्भीक और अभय, वह | लयबद्धता आ जाती है, तब तृप्ति उपलब्ध होती है। युद्ध में लीन होगा, तभी, उसी गहराई में वह समाधि को जानेगा। अर्जुन के लिए युद्ध ही उसकी मंजिल का रास्ता है। जंगल की समाधि उसके लिए नहीं हो सकती।
अर्जुन समझ सकेगा कृष्ण की इस बात को, इसलिए वे कहते कृष्ण से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्ति खोजना जगत में मुश्किल है, | हैं कि मैं वेदों में सामवेद हूं। सामवेद से वे इतना ही कह रहे हैं कि जो व्यक्तियों के टाइप को, उनके स्वभाव को इतनी प्रगाढ़ता से मैं समस्त ध्वनियों में लयबद्धता हूं। मैं समस्त ध्वनियों में संगीत पहचानता हो। अब तक मनुष्य-जाति ठीक अर्थों में व्यक्ति के प्रकार | | हूं। मैं समस्त शब्दों में संगीत हूं। और संगीत हो किसी शब्द में, का विज्ञान विकसित नहीं कर पाई। बहुत प्रयास किए गए हैं। लेकिन | तो मैं वहां मौजद हैं। अब तक कोई प्रयास बहुत गहन रूप से सफल नहीं हो सका। देवों में इंद्र हूं और इंद्रियों में मन हूं।
अभी नए-नए, कुछ ही वर्ष पहले कार्ल गुस्ताव जुंग ने बहुत | देवों में इंद्र हम समझ सकते हैं। श्रेष्ठतम देव इंद्र है, देवताओं मेहनत की और व्यक्तियों के चार प्रकार बांटे। लेकिन हिंदू, | का राजा है, इसलिए कृष्ण कहते हैं। इंद्रियों में मन हूं, यह थोड़ा व्यक्तियों के चार प्रकार लाखों वर्ष से बांटते रहे हैं। और बीसवीं समझना पड़ेगा। सदी का कोई बड़े से बड़ा मनोवैज्ञानिक पुनः यह कहेगा कि व्यक्ति साधारणतः हम सोचते हैं, इंद्रियां अलग हैं और मन अलग है। चार प्रकार के हैं...! जब कि हिंदुस्तान में थोड़े अधकचरे | | इसलिए तो हम पांच इंद्रियों की बात करते हैं। अगर हम मन को पढ़े-लिखे लोग, सारी पुरानी पद्धति को तोड़ने में संलग्न हों, इस | भी इंद्रिय समझें, तो हमें छः इंद्रियों की बात करनी चाहिए। हम सब खयाल से कि वे कोई बहुत बड़ा क्रांतिकारी कार्य कर रहे हैं, तब | कहते हैं, आदमी पंचेंद्रिय है। कृष्ण के हिसाब से आदमी के पास पश्चिम में पुनः इस संबंध में सोच-विचार शुरू हो गया है कि | छः इंद्रियां हैं, पांच नहीं। मन भी एक इंद्रिय है। सूक्ष्मतम, श्रेष्ठतम, व्यक्ति विभाजित है, उनके प्रकार विभाजित हैं। और जो व्यक्ति का | लेकिन मन भी एक इंद्रिय है। प्रकार है, वही प्रकार उसके आनंद का मार्ग बन सकता है। दूसरे इसे हम थोड़ा ठीक से समझ लें। किसी भी मार्ग से जाकर वह दुख पाएगा।
आंख देखती है। कान सुनता है। हाथ छूते हैं। नाक से गंध आती और अगर आज पृथ्वी पर बहुत गहन दुख हो गया है, तो उसका है। जीभ से स्वाद आता है। ये सारी इंद्रियां इकट्ठा करती हैं। मन, बड़े से बड़ा कारण न तो गरीबी है. क्योंकि गरीबी सदा से थी. आज इन सब इंद्रियों से जो इकट्ठा होता है. उसका नाम है। मन सभी से ज्यादा थी। न उसका कारण बीमारी है, क्योंकि बीमारी आज | इंद्रियों का संग्रह है। आंख देखती है आपको, आवाज कान सुनते सबसे कम है, बहुत ज्यादा बीमारी इसके पहले थी। न उसका | हैं। मन तय करता है कि जिसको देखा, उसी को सुना है। क्योंकि
1200