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गीता दर्शन भाग-5
हम समझ जाते हैं, क्या है।
, इसलिए
अर्जुन शायद नहीं समझ पाया आत्मा के तल की बात, कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों में मैं मन हूं। श्रेष्ठतम इंद्रिय हूं। लेकिन यह बच्चे को समझाने के लिए लिया गया प्रतीक है। क्योंकि कृष्ण इंद्रियों में मन हैं, यह ठीक है, इंद्रियों की तरफ से हम सोचें तो ! और जरा पीछे हटें, तो कृष्ण मन नहीं हैं! मन के भी पीछे जो ज्ञाता है, द्रष्टा है, वह हैं। और पीछे हटें, तो द्रष्टा भी नहीं, क्योंकि द्रष्टा भी दृश्य से बंधा होता है; द्वैत का थोड़ा संबंध होता है । फिर पीछे तो सिर्फ शुद्ध चैतन्य है, सिर्फ ज्ञान की क्षमता।
महावीर ने कहा है, केवल ज्ञान, जस्ट नोइंग । फिर तो पीछे सिर्फ ज्ञान मात्र ही रह जाता है; ज्ञाता भी नहीं। लेकिन जितने हम पीछे की, गहरे की बात करें, उतना ही समझना मुश्किल हो जाता है। इसलिए दरवाजे से ही कृष्ण शुरू कर रहे हैं।
ऐसा समझें कि एक मंदिर है और मंदिर के गहन गर्भ में प्रतिमा स्थापित है। और एक आदमी से हम बात कर रहे हैं, जो कभी किसी मंदिर के भीतर नहीं गया, मंदिर के बाहर ही खड़ा है। तो कृष्ण उससे कहते हैं कि ये जो दस सीढ़ियां हैं, इसमें दसवीं सीढ़ी मैं हूं। ये सीढ़ियां दिखाई पड़ती हैं। मकान के बाहर से, मंदिर के बाहर से, सीढ़ियां दिखाई पड़ती हैं। कृष्ण कहते हैं, ये जो दस सीढ़ियां हैं, इसमें दसवीं सीढ़ी मैं हूं ।
इतना भी क्या कम है कि ये नौ सीढ़ियां छूट जाएं और नौ सीढ़ियों के पार आदमी दसवीं पर पहुंच जाए, तो शायद फिर पीछे उससे कहा जा सके कि ये जो दरवाजे दिखाई पड़ते हैं, इसमें दसवां दरवाजा मैं हूं। तो नौ दरवाजे छूट जाएं, दसवें दरवाजे तक पहुंच जाए। और ऐसे क्रमशः अंततः उस जगह ले जाया जा सके, जहां वस्तुतः कृष्ण का होना है।
सीढ़ियां भी मंदिर का हिस्सा हैं, निश्चित ही । और जो प्रतिमा मंदिर के गर्भ में स्थापित है, उससे भी सीढ़ियां जुड़ी हैं, निश्चित ही। पहली सीढ़ी भी उसी से जुड़ी है; दसवीं सीढ़ी भी उसी से जुड़ी हैं। लेकिन सीढ़ियां प्रतिमा नहीं हैं।
पर अर्जुन मंदिर के बाहर खड़ा है। और उसकी समझ के बाहर है मंदिर के भीतर की भाषा । उससे बाहर की भाषा बोलनी पड़ती है। इस बाहर की भाषा बोलने के कारण बड़ी दुर्घटनाएं हो गई हैं। क्योंकि इन शास्त्रों को पढ़कर फिर हम ऐसा मानकर बैठ जाते हैं। क्योंकि हमको लगता है, कह तो दिया कृष्ण ने कि इंद्रियों में मन मैं हूं। तो ठीक है। तो हम मन को पकड़कर बैठ जाते हैं। दसवीं सीढ़ी
की पूजा शुरू कर देते हैं।
यह कहा गया है, ताकि नौ सीढ़ियां छूटें, दसवीं पकड़े नहीं । | ध्यान रखना, यह इसलिए नहीं कहा है कि दसवीं पकड़े। यह | इसलिए कहा है कि नौ छूटें। और नौ छूट जाएं, तो फिर दसवीं भी छोड़ी जा सके।
लेकिन हम बहुत मजेदार लोग हैं। हम दसवीं तो पहुंचने की बात अलग, नौ को छोड़ने की बात अलग, हम दसवीं को इतने जोर से पकड़ते हैं कि उसकी वजह से नौ भी पकड़ जाती हैं। और दसवीं पर हम इस बुरी तरह रुक जाते हैं कि हमें बाकी नौ पर भी अपना घर बनाना पड़ता है।
जब भी कोई परम सत्य को मनुष्य की भाषा में कहा जाए, तो खतरा मोल लेना है। क्योंकि यह भी हो सकता है कि भाषा को छोड़कर परम सत्य तक वह पहुंचे, और यह भी हो सकता है कि परम सत्य को छोड़े और भाषा में जो कहा गया है, उसे पकड़ ले।
चांद को इशारा करूं अपनी अंगुली से । यह भी हो सकता है, आप मेरी अंगुली पकड़ लें और कहें कि यही चांद है, क्योंकि आपने ही तो कहा था कि यह रहा चांद चांद तो मैं आकाश की तरफ बताऊं अंगुली से, और अगर आपने चांद कभी देखा न हो और देखें कि ठीक है, अंगुली बताई जा रही है और मैं कह भी रहा हूं कि यह रहा चांद, तो आप मेरी अंगुली पकड़ ले सकते हैं।
लेकिन अंगुली से चांद का कोई भी संबंध नहीं है। अंगुली से चांद बताया जा सकता है, संबंध कोई भी नहीं है। इतना ही संबंध | है कि अगर आप अंगुली को छोड़ दें और भूल जाएं और चांद को देखें, तो चांद दिखाई पड़ सकता है। लेकिन अगर आप अंगुली को ही पकड़ लें, तो चांद फिर कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगा। इशारे पकड़ | लिए जाते हैं, और जिसकी तरफ इशारा किया जाता है, वह चूक | जाता है।
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यह भी इशारा है कि कृष्ण कहते हैं, मैं इंद्रियों में मन हूं। इतना भी क्या कम है कि तुम इंद्रियों से ऊपर उठो । कम से कम पांच से ऊपर उठो, छठवीं पर पहुंचो। कम से कम बाहर की इंद्रियों से ऊपर उठो, भीतर की इंद्रिय पर पहुंचो। थोड़ा तो भीतर प्रवेश होगा। थोड़ा भी भीतर प्रवेश हो, तो और भीतर की संभावना खुल | जाती है, और नए द्वार खुल सकते हैं।
लेकिन खतरा भी हम ध्यान रखें। इसे पकड़ा भी जा सकता है; | जोर से पकड़ा जा सकता है । और हम जैसे लोग हैं, जो हमारी | समझ में आए, उसे हम पकड़ लेते हैं।
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