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६ सगुण प्रतीक—सृजनात्मकता, प्रकाश, संगीत और बोध के
और धर्म का मामला ऐसा है कि जो-जो आपकी समझ में आए, ठीक से समझ लेना कि उसे पकड़ना नहीं है। जो-जो आपकी समझ में आए, समझ लेना ठीक से कि उसे पकड़ना नहीं है, क्योंकि आपकी समझ में बहुत बड़ी बात नहीं आ सकती। और जो आती है, वह आपकी समझ के अनुसार आएगी। और अगर आपको अपनी समझ बड़ी करनी है, तो धीरे-धीरे जो आपको समझ में आता है, उसे छोड़ना; और जो समझ में नहीं आता, उसको पकड़ने की कोशिश करना ।
यह बहुत कठिन मालूम पड़ेगा। लेकिन समस्त विकास का मार्ग यही है। जो आपको समझ में आए, उसे धीरे-धीरे छोड़ना; और जो समझ में न आए, धुंधला समझ में आए, उठाना। तो आप आगे बढ़ेंगे।
उस तरफ कदम
एक आदमी एक सीढ़ी पर खड़ा है। पहली सीढ़ी पर खड़ा है। दूसरी सीढ़ी पर जाना चाहता हो, तो जिस सीढ़ी पर खड़ा है, उसे छोड़ना पड़ेगा। पैर ऊपर उठाना पड़ेगा, जिस पर खड़ा है। और दूसरी सीढ़ी जो अपरिचित है, अनजान है, जिस पर कभी खड़ा नहीं हुआ, उस पर पैर रखना पड़ेगा । और जब एक पैर उस पर रख जाए, तो दूसरा पैर भी पहली सीढ़ी से हटा लेना पड़ेगा।
हमें क्रमशः अगर अंतिम की खोज करनी है, तो जो हमारे पास है, उसे धीरे-धीरे छोड़कर और हमें आगे बढ़ते जाना होगा। जो लोग बहुत भयभीत होते हैं, अज्ञात से डरते हैं; जो समझ में नहीं आता, उस तरफ कैसे जाएं; वे लोग अपनी ही समझ में कैद हो जाते हैं। उनकी छोटी-सी समझ उनके लिए यात्रा नहीं बनती, कारागृह बन जाती है।
हम सभी लोग अपनी-अपनी बुद्धि में बंद हैं। हम सब अपने-अपने कैदी हैं। जेलर भी कोई नहीं, हम ही जेलर भी हैं। हम
हैं। हम ही कारागृह हैं। और हम ही कारागृह पर पहरा देते हैं कि कहीं कैदी बाहर न निकल जाए!
यह जो स्थिति बनती है, भय के कारण बनती है। क्योंकि जो हम जानते हैं, वह सुरक्षित है, सिक्योर्ड है। जो हम नहीं जानते, उसमें डर लगता है, उसमें भय लगता है। लगता है, पता नहीं, ठीक चूक जाए और गलत पर पैर पड़ जाए !
लेकिन ध्यान रखना, गलत पर भी पैर पड़े, तो रुके रहने से बेहतर है। भूल भी हो जाए, तो सदा ठीक बने रहने से और रुके रहने से बेहतर है। जो भी आदमी विकास करता है, वह भूलें करता है । करेगा ही। और अगर कोई आदमी कहता है, मुझसे भूलें होती
ही नहीं; तो समझ लेना कि वह आदमी विकास कभी भी नहीं करेगा और उसने विकास किया भी नहीं । विकास करने वाला आदमी बहुत भूलें करता है।
हां, एक बात है, एक ही भूल दुबारा नहीं करता। भूलें बहुत करता है; एक ही भूल दुबारा नहीं करता। और कहीं भी रुके होने से भूल करना बेहतर है। क्योंकि भूल भी सिखाती है, आगे ले जाती है।
अंधेरे में बढ़ना बेहतर है। जो रोशनी में ही घिरे रह जाते हैं - अपना छोटा-सा दीया है बुद्धि का, जितनी रोशनी पड़ती है, उसी के भीतर घेरा लगाते रहते हैं—वे जिंदगी में सत्य से वंचित रह जाएंगे। परम धन्यता उनकी कभी भी नहीं होगी। उनके ऊपर उस प्रसाद की वर्षा कभी नहीं होगी, जो उनके ऊपर होती है, जो इस प्रकाश के घेरे को तोड़कर अंधेरे में भी बढ़ते हैं।
ध्यान रहे, अंधेरे में जब हम बढ़ते हैं, तो अंधेरा भी धीरे-धीरे प्रकाश बनने लगता है। और जितना हम अंधेरे से परिचित होते हैं, आंखें जितना अंधेरे को जानने लगती हैं, उतना अंधेरे में भी दिखाई पड़ने लगता है।
और एक बार अंधेरे में देखने की क्षमता आ जाए, तो इस जगत में फिर कोई भी अंधेरा नहीं है। और एक बार अंधेरे को भी प्रकाश में बदलने की कला आ जाए, जो कि साहस से बढ़ने वाले आदमी को आ जाती है, तो इस जगत में सब जगह प्रकाश है। फिर कहीं अंधेरा नहीं है।
विकासमान चाहिए चित्त। प्रतीक खतरनाक हैं, अगर हम पकड़ लें।
मैंने सुना है, एक घर में ऐसा हुआ, छोटे थे बच्चे और बाप मर | गया। मां पहले मर चुकी थी। छोटे ही थे बच्चे, बड़े हुए। बाप के | बाबत उन्हें कुछ ज्यादा पता नहीं था, लेकिन कुछ-कुछ बातें | खयाल रह गई थीं। और बाप की याददाश्त रखनी थी, तो उन्होंने | सोचा, कुछ तो बाप की याददाश्त में, मेमोरी में, कुछ बचा लें। क्या |बचा लें ?
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बच्चों को इतना याद था कि पिता उनको खाना खिलाता था। मां का काम भी उसी को करना पड़ता था। फिर पीछे खुद खाना खाता था। सब बच्चों को इतना याद था कि खाने के बाद चौके के आले में उसने एक छोटी-सी लकड़ी रख रखी थी। वह उससे दांत साफ करता था । यह उन्हें कुछ भी पता नहीं था। लेकिन आले में वह लकड़ी अभी भी रखी थी। वह लकड़ी दांत साफ करने का छोटा-सा टुकड़ा था। बेटों ने सोचा कि बाप की याददाश्त रखनी