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शास्त्र इशारे हैं
कुछ आश्चर्य नहीं है। उसके लिए चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती। अभी तो महावीर को मानने वाला जो साधु है, वह भी चेष्टा कर रहा है। लड़ रहा है अपने शरीर से कि वासना छूट जाए। लेकिन उसे भी पता नहीं कि वासना बाहर से लड़ने से नहीं छूटेगी। भीतर से शरीर दिख जाए, तो यह वासना छूट जाती है। क्योंकि भीतर सिवाय फिर गंदगी के और कचरे के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता । और तब हैरानी होती है कि इस कचरे को, इस गंदगी को, इस सबको मैंने समझा है अपना होना !
और जो आदमी अपने शरीर को भीतर से देखने में समर्थ होता है, वही आदमी अपने केंद्र को भी देख पाएगा। क्योंकि केंद्र का मतलब है, अब और भीतर चलो। अब शरीर को बिलकुल छोड़ दो; और उसको देखो, जो सब देखता है। अब उसको जानो, जो सब जानता है। अब उस बिंदु पर खड़े हो जाओ, जो साक्षी है, जो देख रहा है शरीर की हड्डी - मांस-मज्जा को । अब इसको ही पहचानो, यही केंद्र है।
कृष्ण कहते हैं, मैं सबके हृदयों में स्थित आत्मा हूं।
तो यह पहला कीमती वक्तव्य है, जिसमें परमात्मा के अस्तित्व की पूरी बात आ जाती है। लेकिन यह हमारे खयाल में न आए। और अगर हमको खयाल में भी आए, तो हम शायद सोचते होंगे कि जो हृदय हमारा धड़क-धड़क कर रहा है, उसी हृदय की बात है।
उस हृदय की कोई भी बात नहीं है। इस हृदय को वैज्ञानिक हृदय मानने को तैयार भी नहीं हैं और वे ठीक हैं। वे कहते हैं, यह तो फेफड़ा है। और वे ठीक कहते हैं। यह तो सिर्फ पंपिंग स्टेशन है, जहां से आपके खून की सफाई होती रहती है चौबीस घंटे । सांस जाती है, खून आता है, सफाई होती रहती है। यह तो सिर्फ पंप करने का इंतजाम है। यह हृदय नहीं है। यह तो सिर्फ फेफड़ा है, फुफ्फुस है। यांत्रिक है। इसलिए प्लास्टिक का फेफड़ा लग जाता है और आपमें कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
ध्यान रखना, आप यह मत सोचना कि आपका हृदय निकालकर और प्लास्टिक का लगा दिया, तो आप प्रेम न कर पाएंगे। और मजे से कर पाएंगे। कोई फर्क न पड़ेगा। क्योंकि यह आपका हृदय नहीं है। यह हृदय नहीं है। हृदय तो उस केंद्र का नाम है - इस फेफड़े से तो हमारा शरीर चलता है— हृदय उस केंद्र का नाम है, जिससे हमारा अस्तित्व धड़कता है। आत्मा का नाम हृदय है।
इसलिए इस तरह की योग में प्रक्रियाएं हैं कि योगी चाहे तो थोड़ी चेष्टा करके हृदय की धड़कन बंद कर लेता है। हृदय की धड़कन
बंद हो जाती है, लेकिन योगी मरता नहीं है। हृदय की धड़कन बंद होने से मरने का कोई गहरा संबंध नहीं है। हम मर जाते हैं, क्योंकि हमें पता नहीं कि अब इस हृदय को फिर से कैसे धड़काएं। लेकिन चेष्टा से इस हृदय को रोका जा सकता है और पुनः धड़काया जा सकता है।
ब्रह्मयोगी ने उन्नीस सौ तीस में आक्सफोर्ड में, कलकत्ता में, रंगून में, कई विश्वविद्यालयों में अपने हृदय के धड़कन के बंद करने के प्रयोग किए। वे दस मिनट तक अपने हृदय को बंद कर लेते थे । कलकत्ता विश्वविद्यालय में दस डाक्टरों ने जांच की और लिखा। क्योंकि ब्रह्मयोगी ने कहा था कि जब मेरा हृदय बंद हो जाए, तब आप लिखना कि मैं जिंदा हूं या मर गया, और दस्तखत | कर देना। दस डाक्टरों ने उनके डेथ सर्टिफिकेट पर दस्तखत किए कि यह आदमी मर गया; मरने के सब लक्षण पूरे हो गए।
और दस मिनट बाद ब्रह्मयोगी वापस लौट आए। हृदय फिर धड़कने लगा। सांस फिर चलने लगी। नाड़ी फिर दौड़ने लगी। और ब्रह्मयोगी ने वह जो सर्टिफिकेट था उसे जब मोड़कर खीसे में रखा, | तो उन डाक्टरों ने कहा कि कृपा करके यह सर्टिफिकेट वापस दे दें, क्योंकि इसमें हम भी फंस सकते हैं! हमने लिखकर दिया है कि | आप मर चुके । तो ब्रह्मयोगी ने कहा कि इसका अर्थ यह हुआ कि | तुम जिसे मृत्यु कहते हो, वह मृत्यु नहीं है।
निश्चित ही, जिसे डाक्टर मृत्यु कहते हैं, वह मृत्यु नहीं है। जहां तक हम संबंधित हैं, वह मृत्यु है। क्योंकि हम अपने को बाहर से जानते हैं, फेफड़े से जानते हैं, हृदय से नहीं। शरीर से जानते हैं, आत्मा से नहीं । परिधि से जानते हैं, केंद्र से नहीं । परिधि तो मर जाती है। और डाक्टर उसी को मृत्यु कहते हैं। और हमें केंद्र के | अस्तित्व का कोई पता नहीं है, इसलिए हम भी उसे मृत्यु मानते हैं।
यह सिर्फ मान्यता है। अगर हमें अपने केंद्र का पता चल जाए, तो फिर कोई मृत्यु नहीं है। कोई मृत्यु नहीं है । मृत्यु से बड़ा झूठ इस जगत में दूसरा नहीं है। लेकिन मृत्यु से बड़ा सत्य कोई भी नहीं मालूम पड़ता। और मृत्यु से बड़ा सुनिश्चित सत्य कोई भी मालूम नहीं पड़ता। मृत्यु बड़ा गहन सत्य है। जहां हम जीते हैं, बाहर, वहां मृत्यु | सब कुछ है। अगर हम भीतर जा सकें, तो जीवन सब कुछ है।
बाहर है मृत्यु, भीतर है जीवन । उस जीवन की सूचना ही कृष्ण देते हैं कि सब जीवन में, जहां-जहां जीवन है, वहां मैं हूं। यह एक बात। दूसरी बात इस सूत्र में छिपी है, वह भी खयाल में ले लें। | कृष्ण यह कहते हैं कि सबके हृदय में, सबकी आत्माओं में मैं हूं ।
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