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गीता दर्शन भाग-5
इसका अर्थ यह हुआ कि हम शरीर से ही अलग-अलग हैं, भीतर से हम अलग-अलग नहीं हैं। हमारा जो भेद है, हमारी जो भिन्नता है, वह शरीर की है, भीतर का कोई भेद नहीं है। नहीं तो फिर कृष्ण सबके भीतर हो सकते। फिर परमात्मा सबके भीतर नहीं हो सकता। इसका यह मतलब हुआ कि हमारी परिधियां अलग-अलग हैं, हमारा केंद्र एक है । हमारी सर्कमफ्रेंस अलग-अलग है, पर हमारा सेंटर एक है।
यह जरा गणित के लिए मुश्किल हो जाएगी बात। यह कठिन हो जाएगी बात। क्योंकि हमको लगता है कि जब हमारी परिधि अलग है, तो हमारा केंद्र भी अलग होगा। इसलिए हम सब सोचते हैं, हमारी आत्माएं भी अलग-अलग हैं। जो सोचते हैं कि उनकी आत्माएं अलग-अलग हैं, उन्हें आत्मा का अभी कोई भी पता नहीं । अभी वे शरीर से ही अपने अलग-अलग होने को मानकर कल्पना करते हैं, अनुमान करते हैं कि आत्मा भी अलग-अलग होगी।
जिस दिन कोई अपने केंद्र को जानता है, उस दिन उसे पता चलता है कि शरीर ही अलग-अलग हैं, आत्मा एक ही विस्तार है। करीब-करीब ऐसा कि यहां इतने बिजली के बल्ब जल रहे हैं। ये सब बल्ब अलग-अलग जल रहे हैं। और कोई नहीं कह सकता कि ये सब बल्ब एक हैं। निश्चित अलग-अलग हैं। और अगर एक बल्ब को मैं तोड़ दूं, तो सब बल्ब नहीं टूट जाएंगे। इसलिए सिद्ध होता है कि बल्ब अलग था। बाकी बल्ब जिंदा हैं, और शेष हैं। मैं मर जाऊं, तो आप नहीं मरते । साफ है कि मैं अलग हूं, आप अलग हैं।
लेकिन इनके भीतर जो बिजली दौड़ रही है, वह एक है । ये बल्ब अलग-अलग हैं और इनके भीतर जो ऊर्जा दौड़ रही है, वह एक है । और अगर ऊर्जा बंद कर दी जाए, तो सब बल्ब एक साथ बंद हो जाएंगे। बल्ब अगर तोड़ें, तो एक बल्ब टूटेगा, तो दूसरा नहीं टूटेगा; जलता रहेगा, जलता रहेगा। लेकिन अगर ऊर्जा बंद हो जाए, तो सब बल्ब एक साथ बंद हो जाएंगे।
हम सब बल्ब की भांति हैं। हमारा शरीर एक बल्ब है। भीतर जो ऊर्जा प्रवाहित है, वह एक है। उस ऊर्जा को कृष्ण कहते हैं, वह ऊर्जा, वह एनर्जी, वह सर्वव्यापी आत्मा मैं हूं। सबकी आत्माओं में, सबके हृदय में, मैं हूं।
इसलिए दूसरी बात इस सूत्र में खयाल में ले लेने जैसी है, कि बाहर है भेद, भीतर अभेद है। बाहर हैं भिन्नताएं, भीतर अभिन्नता बाहर है द्वैत, अनेकत्व भीतर एक है, अद्वैत ।
जो बाहर से ही जीएगा, वह कभी भी अनुभव नहीं कर सकता कि जब वह दूसरे को चोट पहुंचा रहा है, तो अपने को ही चोट पहुंचा रहा है। जो बाहर से जीएगा, वह कभी नहीं सोच सकता कि | जब वह दूसरे का अहित कर रहा है, तो अपना ही अहित कर रहा है। लेकिन जो भीतर से जीएगा, उसे तत्क्षण दिखाई पड़ना शुरू हो
जाएगा कि चाहे मैं अहित करूं किसी का, अहित मेरा ही होता है। और चाहे मैं हित करूं किसी का, हित भी मेरा ही होता है। क्योंकि मेरे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। मैं ही हूं।
अगर महावीर को, या बुद्ध को इतनी करुणा और इतने प्रेम का आविर्भाव हुआ, तो उस करुणा और प्रेम के आविर्भाव का केवल
| एक ही कारण है कि दिखाई पड़ना शुरू हुआ कि मेरे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है ।
कृष्ण कहते हैं, मैं ही हूं सब भूतों के हृदय में सबका आत्मा। और संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत ही हूं। यह दूसरी | बात! उनका प्रारंभ भी मैं हूं, उनका मध्य भी मैं हूं, और उनका अंत | भी मैं हूं।
इसे हम थोड़ा-सा, दो-तीन आयामों से समझ लें। यह भारत की संभवतः एक विशिष्ट दृष्टि है, जिसे दूसरी जगह पाना थोड़ा | मुश्किल है, थोड़ा कठिन है।
जब हम यह कहते हैं कि आदि, मध्य और अंत, तीनों ही परमात्मा है, तो हम समस्त चीजों को परमात्मा के भीतर इकट्ठा कर लेते हैं। हम कुछ भी छोड़ते नहीं । बुराई को भी हम बाहर नहीं | छोड़ते, भलाई को भी बाहर नहीं छोड़ते। अंधेरे को भी भीतर ले लेते हैं, प्रकाश को भी भीतर ले लेते हैं। क्योंकि हम समस्त अस्तित्व को उसके सब आयामों में, प्रारंभ में, मध्य में, अंत में, तीनों में परमात्मा को स्वीकार करते हैं।
इसमें थोड़े चिंतक,
इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाएं, उनको | कठिनाई लगती है। वे कहेंगे कि आदमी जब पाप में है, तब परमात्मा नहीं है। वे कहेंगे, आदमी जब अज्ञान में है, तब परमात्मा नहीं है। आदमी जब कर्मों में घिरा हुआ है, पाप से, अंधकार से डूबा हुआ है, तब परमात्मा नहीं है। वे यह भी मान ले सकते हैं कि यह बीज रूप से परमात्मा है। जब शुद्ध हो जाएगा, तो हम इसे परमात्मा कहेंगे। अभी अशुद्ध अवस्था में है। ये इतना भी मान लें, तो भी वे यह कहेंगे कि जो अशुद्धि है, वह परमात्मा नहीं है। जो | पाप है, वह परमात्मा नहीं है। जो बुरा है, वह परमात्मा नहीं है। वे अस्तित्व को दो हिस्सों में काटेंगे। एक भला अस्तित्व होगा, जिसे
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