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गीता दर्शन भाग-
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मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं। | कहते हैं, वही आप हैं। अगर लोग अच्छा कहते हैं, तो आप अच्छे
जब भी हम किसी को देखते हैं, तो उसकी परिधि दिखाई पड़ती हैं। अगर लोग बुरा कहते हैं, तो आप बुरे हैं। आप भी कुछ हैं? है, केंद्र नहीं। सर्कमफ्रेंस दिखाई पड़ती है, सेंटर नहीं। आप मुझे या सिर्फ लोगों के कहने का जोड़ ही आप हैं! देख रहे हैं, मेरी परिधि दिखाई पड़ रही है। मेरे घर की दीवालें | हर आदमी डरा हुआ है लोगों से। हम पड़ोसियों से जितने डरते दिखाई पड़ रही हैं, मैं आपको दिखाई नहीं पड़ रहा हूं। मैं आपको | हैं, उसका कोई हिसाब नहीं। घबड़ाए रहते हैं। उनको देखकर देख रहा हूं, तो आपका मकान दिखाई पड़ता है, आप दिखाई नहीं | चलते हैं। उनको देखकर उठते हैं। उनको देखकर कपड़े पहनते हैं। पड़ते। आपका शरीर दिखाई पड़ता है, आप दिखाई नहीं पड़ते।। | उनको देखकर बोलते हैं। हर आदमी चारों तरफ से अपने पड़ोसियों आपका केंद्र तो आपके भीतर कहीं छिपा है, गुप्त, गहन। | के हाथों से घिरा है। हर आदमी की गर्दन पर पड़ोसियों की फांसी
कष्ण कहते हैं कि वह जो छिपा हआ हृदय है. वह जो गहन केंद्र | है। और ऐसा नहीं है कि आपके पड़ोसी की फांसी ही आपके ऊपर है सबके भीतर, वही मैं हूं।
| है। आप भी अपने पड़ोसी की गर्दन पर ऐसी ही फांसी रखे हुए बैठे इसके बहुत मतलब हुए। पहला मतलब तो यह कि जब तक हमें | हैं। सब आदमी एक-दूसरे से उलझे हैं। घबड़ाहट रहती है कि कोई अपने भीतर के केंद्र का कोई स्मरण न आए, तब तक कृष्ण की जरा-सा कोई भाव बदल दे, तो हमारी सारी की सारी जीवन की सत्ता और अस्तित्व को हम न समझ पाएंगे। यह तो ठीक है कि मैं | | मेहनत, सारी कमाई व्यर्थ हो जाए! क्यों? जब आपको देखता हूं, तो आपका शरीर मुझे दिखाई पड़ता है, | - ये भी आईने हैं। इनमें देखकर हम समझते हैं कि अपने को आपका केंद्र नहीं दिखाई पड़ता। मजा तो यह है कि आपको भी समझा। हमें अपने केंद्र का भी कोई पता नहीं है। हमने अपने को अपना केंद्र नहीं दिखाई पड़ता। आप भी अपने को आईने मैं जैसा भी बाहर से ही देखा है। कभी आपने अपने शरीर का खयाल किया देखते हैं, उसी भांति पहचानते हैं। अगर आपने जिंदगी में आईना है भीतर से? तो आप घबड़ा जाएंगे। न देखा होता, तो आप अपने को पहचान भी नहीं सकते थे कि आप महावीर अपने साधकों को एक ध्यान करवाते थे। वह था, शरीर कौन हैं। आप भी अपने को इस भांति पहचानते हैं, जैसे किसी दूसरे | को भीतर से देखना। एकदम से तो खयाल में नहीं आएगा कि शरीर को बाहर से देखकर पहचानते हों।
को भीतर से देखने का क्या मतलब? बहुत तरह के आईनों का हम उपयोग करते हैं। एक तो आईना __ आप अपने घर के बाहर खड़े हो जाएं और बाहर से देखें। तो .जो हमारे स्नानगह में टंगा होता है। उसमें हम अपनी शक्ल देख आपको दीवाल की बाहरी पर्त दिखाई पड़ती है. न तो घर का लेते हैं। लेकिन वह कोई बहुत खास आईना नहीं है। और सूक्ष्म फर्नीचर दिखाई पड़ता है, न घर के भीतर की दीवालों पर लटकी आईने हैं। लोगों की आंखों में हम अपने को देखते हैं। हुई तस्वीरें दिखाई पड़ती हैं। घर के भीतर का कुछ दिखाई नहीं
अगर कोई आदमी आपसे कह देता है, आप बहुत अच्छे हैं, बड़े | पड़ता। घर के बाहर का हिस्सा दिखाई पड़ता है। फिर आप भीतर सुंदर हैं, आप तत्क्षण सुंदर और अच्छे हो जाते हैं। और कोई | जाएं, तो बाहर का हिस्सा दिखाई नहीं पड़ता। अब आपको भीतरी आदमी आपसे कह देता है कि शक्ल तो देखो कभी अपनी आईने | दीवाल दिखाई पड़नी शुरू होती है। अब आपको भीतर का फर्नीचर में! तुम्हें देखकर संसार से विराग उत्पन्न होता है! तत्काल आपके दिखाई पड़ना शुरू होता है। भीतर कोई चीज गिर जाती है और टूट जाती है।
महावीर कहते थे, अपने को भीतर से देखो, तो हड्डियां, दसरों की आंखों में देख-देखकर आप अपनी प्रतिमा निर्मित मांस-मज्जा, यह सब दिखाई पड़ेगा। बाहर से देखोगे, तो सिर्फ करते हैं। आपको अपने केंद्र का कुछ भी पता नहीं है। दूसरे आपके चमड़ी दिखाई पड़ेगी। चमड़ी केवल बाहर की दीवाल है। भीतर! संबंध में क्या कहते हैं, उसकी ही कतरन इकट्ठी करके आप अपनी भीतर काफी फर्नीचर है। लेकिन भीतर से हमने अपने को कभी नहीं प्रतिमा बना लेते हैं। इसलिए हम दूसरों पर निर्भर होते हैं। देखा। महावीर कहते थे, आंख बंद करो और भीतर से अपने को
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि अगर हम ऐसा करेंगे, | एहसास करो कि तुम बीच में खड़े हो। अब क्या है वहां? तो लोग क्या कहेंगे!
| तो अगर महावीर का ध्यान करने वाला एकदम विरक्त हो जाए लोग क्या कहेंगे! लोगों का कहना आपकी आत्मा है। लोग जो और शरीर में उसका आकर्षण खो जाए और आसक्ति न रहे, तो
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