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3 शास्त्र इशारे हैं -
ज्ञान के संबंध में भी यही घटना घटती है। कुछ लोग ज्ञान की | | ले जा सकते थे वे, लेकिन पुनरुक्ति, बार-बार पढ़ने से ऊब पैदा तिजोड़ी भरते चले जाते हैं और भीतर अज्ञानी रह जाते हैं। कितना | | हो गई। श्रेष्ठतम कविता भी पुनरुक्त करने से ऊब पैदा कर देगी।
आप जानते हैं, इससे आपके ज्ञान का कोई भी संबंध नहीं है। __ लेकिन धर्म-ग्रंथ का हम पाठ करते हैं। पाठ का मतलब है, रोज कितने आप बदले हैं, कितने आप रूपांतरित हुए हैं, कितने आप । हम पुनरुक्त करते हैं। अगर आप थोड़े भी होशपूर्वक यह पाठ कर डूबे हैं, कितने आप गहरे गए हैं, इससे आपके ज्ञान का संबंध है। रहे हों, तो धर्म-ग्रंथ रोज-रोज आपकी प्यास को जगाएगा। इसको
और ऐसा भी हो सकता है कि आप कहें कि मैं कुछ भी नहीं | । मैं कसौटी कहता हूं। जानता हूं और तो भी आप परमज्ञान को उपलब्ध हो जाएं। क्योंकि | | अगर आप रोज गीता पढ़ते हैं, और गीता पढ़-पढ़कर आपको मैं कुछ भी नहीं जानता हूं, ऐसा जिसको खयाल में आ जाए, उसका | ऊब आने लगती है, जम्हाई आती है और आंख झपने लगती हैं,
अहंकार तत्क्षण बिखर जाता है। मैं जानता हूं, यह भी अहंकार के | तो आप समझना कि गीता आपके लिए धर्मशास्त्र नहीं है। अगर लिए ईंटें बन जाती हैं। मेरे पास धन है, तो भी अहंकार मजबूत होता गीता को रोज-रोज पढ़कर भी आपको नई प्रेरणा मिलती है, और है। मेरे पास ज्ञान है, तो भी अहंकार मजबूत होता है। मेरे पास कुछ | नई प्यास जगती है, और नई खोज शुरू होती है, और ऐसा लगता भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं है, अहंकार विलीन हो जाता है। और जहां | | है कि तृप्ति नहीं हुई, तो ही आप समझना कि गीता आपके लिए होता है अहंकार विलीन, वहीं डुबकी लग जाती है।
जाती है।
धर्म-ग्रंथ है। अहंकार हमारा तैरना है। और जब अहंकार छूट जाता है, | । गीता को सिर लगाने से पता नहीं चलता कि वह धर्म-ग्रंथ है। हाथ-पैर बंद हो जाते हैं, हम डुबकी लगा लेते हैं।
गीता को नमस्कार करने से भी पता नहीं चलता कि धर्म-ग्रंथ है। अर्जुन पूछता है, मुझे विस्तार से कहिए। सोचता है, शायद अभी | गीता आपको उबाए न, ऊब पैदा न करे; और गीता में आपका रस, मेरी समझ में नहीं आया। कृष्ण और विस्तार से कहें, तो मेरी समझ | | जितना आप गीता को पढ़ें, उतना बढ़ता चला जाए, और उतनी ही में आ जाए। और कृष्ण विस्तार से कहेंगे। इसलिए नहीं कि वे | | अतृप्ति मालूम पड़े, तो ही आप समझना कि गीता आपके लिए सोचते हैं कि अर्जुन की समझ में आ जाएगा। बल्कि इसलिए कि | | धर्म-ग्रंथ हुआ। इसलिए नियम था कि धर्म-ग्रंथ को पढ़ा न जाए, अर्जुन देख ले कि विस्तार से कहने पर भी समझ में नहीं आता है। पाठ किया जाए। समझ कोई बात ही और है।
पढ़ने और पाठ करने में फर्क है। पढ़ने का मतलब, एक दफा समझ के लिए, दूसरे ने कितना बताया, यह मूल्यवान नहीं। पढ़ लिया, बात समाप्त हो गई। पाठ का मतलब है, रोज-रोज समझ के लिए, मैं कितना स्वयं को बदला, नया बना, यह | किया जाए। और अगर आप वर्षों तक भी गीता का पाठ करके यह महत्वपूर्ण है।
कह सकें, अनुभव कर सकें कि मुझे ऊब नहीं आती, मेरा स्वाद __ उसने भी शायद यही सोचकर कहा है कि अगर और कृष्ण और बढ़ता ही चला जाता है, गीता मुझे रोज ही नई मालूम पड़ती बहुत-से वचन कहें, तो मेरी तृप्ति हो जाए। लेकिन कृष्ण कितना | | है, तो ही आप समझना कि गीता और आपके बीच जो संबंध है, ही कहें, तृप्ति नहीं होगी। क्योंकि कृष्ण जो वचन बोल रहे हैं, वे वह धर्म-ग्रंथ और आपके बीच संबंध है। और अगर आपको भी धर्म के परम वचन हैं।
ऊब आने लगती हो, और गीता कंठस्थ हो जाती हो, और अगर एक कविता को आप रोज-रोज पढ़ें, तो आप जल्दी ही । | मेकेनिकली रोज आप यंत्रवत उसे दोहरा देते हों...। ऊब जाएंगे। फिर कभी उस कविता में आपको स्वाद न आएगा। ___ मैं देखता हूं गीता के पाठियों को, उनको फिर कौन-सा पन्ना
और यही रोज विद्यालयों में, विश्वविद्यालयों में होता है। दुनिया | | सामने है, इसकी भी चिंता नहीं रहती। उनको कंठस्थ है। पन्ना कोई की श्रेष्ठतम कविताएं चूंकि कोर्स में रख दी जाती हैं, इसलिए | भी हो, वे दोहराए चले जाते हैं। किताब उलटी भी रखी हो, तो कोई रसहीन हो जाती हैं। शेक्सपीयर और कालिदास भी दश्मन मालम | फर्क नहीं पड़ता। पड़ने लगते हैं। और एक दफा जो यूनिवर्सिटी से शेक्सपीयर या मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सुबह बैठकर कुरान पढ़ रहा है। कालिदास को या भवभूति को पढ़कर लौटा है, फिर दुबारा कभी उलटी रखे हुए है। गांव में तो कोई पढ़ा-लिखा आदमी नहीं है, उनको नहीं पड़ेगा। भारी नुकसान हो गया। बड़े सौंदर्य की यात्रा पर इसलिए किसी को पता नहीं है कि वह उलटा पढ़ता है कि सीधा
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