Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 42
________________ सिरिसेणकहा तेसिमसज्झं किं होज्ज सुयणु ! एगंतविक्कमधणाण । नियतेयलहूकयचंडकिरणकरनियरपसराण ॥ २५१ ॥ तो भणइ पई देवी, सामिय ! मइ जइ करेसि कारुन्नं । तो नियसरीरपीडं, वज्जिन्तो जयसु कज्जम्मि ॥ २५२ तो भणइ नरवई देवि ! तुज्झ आणावडिच्छिओ अहयं । जह भणसि तह करिस्सामि कीस तं कुणसि भयमेयं ? ॥ २५३ दठूण साइसयनाणसंपयं किंपि मुणिवरं पच्छा । तं पुच्छिऊण नाऊण संतईविग्घहेउं ते ॥ २५४ ॥ तप्पडिघायणहेउम्मि उचियकज्जम्मि उज्जमं काहं । मा होसु उस्सुया तं, इंदीवरपत्तसमनयणे ! ॥ २५५ (जुयल) इच्चाइकोमलगिराहिं देवमभिनंदिउं हरियदुक्खं । आलिंगिऊण तम्मंदिराउ निवई गओ तुट्ठो ॥ २५६ ॥ अन्नम्मि दिणे उज्जाणमागओ सो समं सपणईहिं । नाउं तं कयसोहं, उद्दामवसंतलच्छीए || २५७ ।। हरिसल्लसंतसललियगीयगणे नज्जमाणतरुणियणे । वज्जंतपडह-मद्दलफडपायपयट्टपेक्खणए ।। २५८ ॥ तत्थच्छन्तो सुइरं, रममाणो विविहरूवकीलाहिं । अंबरयलाओ पासइ, मुणिवरमेगं अवयरंतं ॥ २५९ ।। तिव्वतवजलणनिद्दड्ढकम्मवणमसमओहिनाणधणं । धण-कणयपमुहसंपयविवज्जियं निज्जियकसायं ॥ २६० ॥ दठूण भत्तिभरनिब्भरो निवो पणमई तयं सहसा । सह संगयसयलजणेण सहरिसं हरिससोयसमं ॥ २६१ ।। समणगुणभासमाणं, माणविहीणं पि माणजुत्ततणुं । नामेण अणंतमणंतसत्तजणियाभयपयाणं ॥ २६२ ।। दाऊण धम्मलाभं, मुणी वि रन्नो सपरियणस्स तहिं । सुद्धसिलाइ निविट्ठो, तमालतरुनियडदेसम्मि ॥ २६३ ॥ एत्तरम्मि राया, भणइ मुणिं उचियभूमियाइ ठिओ । अम्हारिसाण पुण्णोदएण तुब्भे इह उवेह ।। २६४ ।। अन्नत्थ वि गंतूणं, दूरे वि जओ जगुत्तमगुणाण । तुम्हाण पायजुयलं, अम्हेहिं वंदणिज्जं ति ।। २६५ ॥ ता अम्हाण वि किर पुव्वसुकयसंभारसंभवो कोइ । अत्थि मुणीसरपहुपायपंकयं जेहिं तुह दिह्र ।। २६६ ॥ पावं विहुणेइ मई जणेइ निहणेइ दुरियदंदोलिं । दलइ अलच्छि मेलवइ वंछियं दंसणं तुम्ह ॥ २६७ ।। पुच्छामि अओ मह कइय नाह ! होही चरित्तपरिणामो । संसार-जलहिमेयं, जेण तरिस्सामि लीलाए ॥ २६८ ॥ तच्चित्तगयं भावं, विया.णऊणं मुणी वि निद्दिसइ । रज्जधुरधरणजोग्गो, पुत्तो तुह जाव संभविही ॥ २६९ ॥ पुत्तस्स य उप्पत्ती, तुह नत्थि नरिंद ! संपयं चेव । तदसंभवम्मि हेडं, जइ पुच्छसि सुणसु तं पि तओ ॥ २७० एसा तुहग्गमहिसी, एत्थेव पुरम्मि आसि नरनाह ! । देवंगयस्स वणिणो, सिरीए भज्जाए पियपुत्ती ॥ २७१ ॥ नामेण सुणंदा रूव-वि गयगुणजणियजणमणाणंदा । वस॒ती सा नवजोव्वणम्मि अन्नम्मि दियहम्मि ।। २७२ ।। पेच्छइ तारुन्नभरे, गब्भभरोवहयदेहलायन्नं । तप्पीडाए परिपीडियं च अइदीणमेगित्थिं ।। २७३ ।। तं दह्र नियजोव्वणमयमत्ता कुणइ एरिस नियाणं । जम्मंतरे वि मा हं, पढमवए एरिसी होज्जं ॥ २७४ ।। जेण वराई एसा, जुवजणमणनयणहारितारुण्णं । पत्ता वि पेच्छ गब्भेण पाविया केरिसमवत्थं ॥ २७५ ।। नीरोगा वि हु रोगाउर व्व कयमंदमंदसंचारा । वररूवा वि हु दुईसण व्व बीभच्छमुत्ती य ॥ २७६ ।। एवं च कयनियाणाइ तीए न य चिंतियं जिणमयम्मि । थेवं पि इमं विहियं, गुरु-दुक्खनिमित्तयमुवेइ ॥ २७७ एत्तो च्चिय परिहरिओ, नियाणबंधो जिणागमण्णूहिं । गंधो वि कालकूडस्स किं न पाणीण पाणहरो ? || २७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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