Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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सिरिचंदप्पहजिणचरियं
तइंसणसंभासणाइजणियगुरुहरिसनिब्भरमणा य । तीसे महत्तराए, सुणंति ते देसणं पवरं ॥ १५०८ ॥ पत्थावं लहिऊणं, पुच्छंति य को सुहस्स इह हेऊ । पभणइ गणिणी धम्मो, को सो ? ते पुण वि पुच्छंति ॥ १५०९ सा आह जीवरक्खा, का सा ? ते बिंति भणइ गणिणी वि । मण-वयण-कायजोगेहिं वज्जणं जीवघायस्स ॥ १५१० अन्ना वि ताण पुच्छा, महत्तराए य उत्तरं जं च । पन्हुत्तरक्कमेणं, कहिज्जमाणं तयं सुणह ।। १५११ ।। किं सोक्खं आरोग्गं, को नेहो जो मणस्स सब्भावो । किं भन्नइ पंडिच्चं, सव्वत्थ वि जं परिच्छेओ ।। १५१२ किं विसमं कज्जगई, किं लठं जं जणो गुणग्गाही । किं सुहगेज्झं सुयणो, किं दुग्गेझं खलो लोओ ॥ १५१३ किं दुक्खं परतंतत्तमेव, किं पीइछेयणं कोहो । किं विणयहाणिजणणं, थड्ढत्तं सेलथंभो व्व ।। १५१४ ॥ को मित्तयाइ सत्त, माया किं सव्वनासणं लोभो । किं मरणं सोक्खंतं किं दारिदं असंतोसो ॥ १५१५ ।। एमाइपसिणवागरणकरणमिच्छत्तमोहहरणेण । जायाइं ताई सुस्सावयाई सव्वाइं समकालं ॥ १५१६ ॥ सह सेससाहुणीहिं, महत्तरं वंदिऊण तो काउं । सोमाइ खामणं ते, गया य सममेव गेहम्मि || १५१७ ।। तप्पभिई अन्नो वि हु, न को वि से धम्मविग्घमायरइ । इय निरइयारधम्मं, पालइ सा गुरुयणेण समं ॥ १५१८ कालंतरेण सुहधम्मपरायणाण, लोओवयारनिरयाण गुणुत्तमाण । पाणे चइत्तु विहिणा ससमाहिपुव्वं, जाओ सुरालयगमो सयलाण ताण । १५१९ ॥ इय मग्गगामिभावाओ मंगलाई हवंति जीवाण । गुणठाणगपरिणामे, परिणामसुहावहफलाई ॥ १५२० ।। एवं सिरिअजियंजयनरिंद ! जं पुच्छियं तए सोमा । का एसा के व गुरू, तं कहियं तुज्झ सपसंगं ॥ १५२१ ।। केवलमेसो कहिओ, पंचण्हं कम्मबंधहेऊण । जो परिहारो सोमाइयाण देसेण सो नेओ ॥ १५२२ ।। जे अइलहुकम्माणो, जं किंचि निमित्तमित्तमिह पप्प । नीसेससंगचाय, करंति उच्छलियसुहविरिया ॥ १५२३ ॥ पुन्नाणुबंधिपुन्नोदयेण, जम्मंतरे समालीढा । तेसिं मिच्छत्ताई, पयपंचयसव्वपरिहारो ॥ १५२४ ।। (जुयल) तम्मि य वियाणियव्वो, दिलैंतो तुज्झ चेव अंगरुहो । सिरिधम्मभवे जेणं, पलोइडं सरयमेहालिं ॥ १५२५ ॥ उल्लसियउग्गवेरग्गभावणाजणियचरणसद्धेण । मोत्तूण रायलच्छि, पडिवन्ना सव्वओ विरई ॥ १५२६ ॥ (जुयल) परिवालिऊण तं निरइयारमाराहिऊण विहिमरणं । सोहम्मे उववन्नो, सिरिहरनामा महिड्ढिसुरो ॥ १५२७ ।। आउक्खयम्मि चविउं, तत्तो तुह चेव एस वरपुत्तो । संजाओऽजियसेणो, त्ति चक्कवट्टित्तमणुपत्तो ॥ १५२८ ॥ अजियंजयनरनाहो, सुणिउमिमं जायसुद्धपरिणामो । भणइ जिणं कहमेयाण जायए सव्वपरिहारो || १५२९ ।। तो साहइ तित्थयरो, जो खलु सम्मत्तनाणचरणाणि । समगं चिय आराहइ, परिहारो तस्स सव्वेसि ॥ १५३० ।। सम्मत्ताई आराहणा य जायइ सुसाहुदिक्खाए । मिच्छत्ताईचाओ, तत्थेव जओ समग्गो त्ति ॥ १५३१ ।। तहा हि - सब्भूयत्थगणाण सद्दहणओ सम्मत्तमावेइयं । हेयादेयपयत्थसत्थविसए नाणं पयासावहं ॥ चारित्तं च समग्गपावपडलोवग्घायसंपायगं । कम्माभावकरं तिगं पि मिलियं एव न एक्केक्कयं ।। १५३२ ॥
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