Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
View full book text ________________
८६
सिरिचंदप्पहजिणचरियं
ते सूरा ते धीरा, ते च्चिय नियकुलनहंगणमियंका । अणवज्जकज्जनिरया, चयंति जे सव्वसावज ॥ २२२५ ।। ते दिन्नसव्वदाणा ते सुइणो ते सुरासुरप्पणया । अणवज्जकज्जनिरया, वयंति जे सव्वसावज्जं ॥ २२२६ ।। ते गुणिणो ते गुरुणो, ते सुहिणो ते सुचित्ततवचरणा । अणवज्जकज्जनिरया, चयंति जे सव्वसावज्जं ।। २२२७ ।। ते भुवणाणंदकरा, ते निम्मलकित्तिभरियदिसविवरा । अणवज्जकज्जनिरया, चयंति जे सव्वसावज्जं ॥ २२२८ ।। ता जं एत्तियकालं, विसयासत्तेण अज्जियं पावं । तं तिविहं तिविहेणं, अहं पि मुच्चामि जा जीवं ।। २२२९ ।। इय चिंतितस्स विसुद्धनाणदंसणचरित्तपत्तस । अप्पुव्वकरणपुव्वं, उल्लसियअउव्वविरियस्स ।। २२३० ।। चडियस्स खवगसेढिं, विसुद्धसियझाणझवियकम्मस्स । लोयालोयपयासं, संजायं केवलं नाणं ।। २२३१ ।। तओ य -- वोलीणाणागयवट्टमाणनीसेसभावघडिएण । तं नत्थि जं न पासइ, भरहनिवो दिव्वनाणेण ॥ २२३२ ।। एवं सुविसुद्धमणो गिहत्थभावे वि वट्टमाणो सो । पत्तो केवलनाणं निन्नासिय घाइकम्मबलो ।। २२३३ ।। भणियं च - पासम्मि इत्थिरयणं, करिहरिरहजोहसंगयं रज्जं । भोगा सुरिंदसरिसा रमणीओ सुरसमो वेसो ॥ २२३४ ।। सीहासणे निसन्नो संपत्तो तह वि केवलं भरहो । जम्हा न बज्झवत्थू, विसुद्धभावस्स पडिबंधो ।। २२३५ ॥ ता जं पुढं तुमए, हिरिमइ ! सुस्साविए ! जहा भरहो । को एस जेण पत्तं, गिहिणा वि हु केवलन्नाणं ।। २२३६ ।। सो एस तुज्झ कहिओ, पत्थुयवत्थुम्मि जोयणाउ इमा । पत्तं केवलनाणं, विणा वि भरहेण तवचरणं ।। २२३७ ।। भरहस्स जो उ भाया, बाहुबली सो तहुग्गतवचरणा । संवच्छरं ठिओ वि हु केवललच्छि न संपत्तो ।। २२३८ ॥ मणसुद्धिअभावाओ, सो वि हु, लहुभाइअनमणवियप्पा । संजाओ से सुविसुद्धनाणविग्घो जओ भणियं ॥ २२३९ ॥ धम्मो मएण हुँतो, जं न वि सीउण्हवायविज्झडिओ। संवच्छरं अणसिओ बाहुबली तह किलिस्संतो त्ति ॥ २२४० ॥ मणसुद्धी अकलंका, जस्स पुणो बीयचंदलेह व्व । होउ तवो से मा वा, तह वि हु अहिलसियसंपत्ती ।। २२४१ ।। तो भणइ हिरिमई पुण, वि मत्थए अंजलिं करेऊण । मुणिनाह ! एवमेयं, किंतु इमं कहसु मह ताव ।। २२४२ ।। पत्तो केवलनाणं, जो भरहो सो तहेव गिहिलिंगो। किं पत्तो सिवठाणं, उयाहु समणत्तणं पत्तो ।। २२४३ ॥ तो कहइ मुणिवरो से, जइया सो केवलं समणुपत्तो । तइया आसणकंपो, जाओ सोहम्मसुरवइणो ।। २२४४ ॥ तो सो पउत्तओही, वियाणिउं तस्स केवलुप्पत्तिं । केवलिमहिमनिमित्तं, समागओ मणुयलोगम्मि ॥ २२४५ ।। भणइ य भरहं भयवं ! पडिच्छ तं दव्वलिंगमेत्ताहे । वंदित्ता जेण अहं, केवलिमहिमं तुह करेमि ॥ २२४६ ।। तो ववहारपवित्तीए कारणं दव्वलिंगमवगम्म । कयकिच्चो वि हु गिण्हइ, लिंगं सो देवयादिन्नं ॥ २२४७ ।। सयमेव पंचमुट्ठियलोयं काऊण साहुलिंगेण । नीहरिओ निरवेक्खो, सीहो व्व गुहाओ गेहाओ ॥ २२४८ ॥ दसहिं सहस्सेहिं समं, नरनाहाणं विमुक्कगेहाणं । पडिवन्नसमणलिंगाण तस्स पासम्मि भावेण ।। २२४९ ।। केवलमहिमा विहिया, सक्केणं तयणु वंदणापुव्वं । भरहस्स महामुणिणो, सेसा वि हु वंदिया सव्वे ।। २२५० ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Loading... Page Navigation 1 ... 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246