Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 141
________________ ११० सिरिचंदप्पहजिणचरियं तेत्तीससागराई उक्कोसेणं सहति गुरुदुक्खं । उड्ढमहो तिरिय चिय भिज्जंता कंटएहिं सया ॥ २८४६ ।। इय केत्तियं व भन्नउ नरगगईवन्नणं महाराय ! | पत्थुयवत्थु सुणिज्जउ जं जायं धरणिकेउस्स ।। २८४७ ।। तइयाओ पुढवीओ उव्वट्टो निययआउयखएण । सो धरणिकेउराया समागओ तिरियजाईए ॥ २८४८ ॥ रम्मम्मि वणे एगम्मि विविहवणराइसहसरमणीए । पउरजलासयकलिए उप्पन्नो हत्थिभावेण ॥ २८४९ ।। कालक्कमेण जोव्वणपत्तो जाओ महंत जूहवई । करिणीजूहेण समं अभिरमइ विचित्तकीलाहिं ।। २८५० ।। तं दठूण सहरिसं वणयरनिवहा कुणंति से नामं । वणकेलि त्ति जहत्थं वणलीलावल्लहत्तेण ।। २८५१ ।। एवं च ताव एवं इओ य जो सो वसुंधरो नाम । पुट्विं महंतओ से पच्छा वि महंतओ होउं ।। २८५२ ॥ सिरिधरणरायसेवापसायओ धरणिकेउरायस्स । तम्मारणेण तट्ठाणठाविए समरकेउम्मि ।। २८५३ ।। सव्वाहिगारियत्तं केत्तियकालं पि पालिऊणं से । मरणावसाणयाए संसारियजीववग्गस्स ।। २८५४ ।। अह अन्नया कयाई मरिऊण इमो वि कइ वि भवगहणे । संसारे परियडिउं उप्पन्नो हत्थिरूवेण ।। २८५५ ॥ सत्थोवइट्ठसुपसत्थलक्खणो मयजलोल्लगंडयलो । नीसेसकरिवराणं सिरोमणी नियगुणोहेण ।। २८५६ ।। भवियव्वयानिओएण तस्स वणकेलिकरिवरस्सेव । रन्नवणासन्नम्मी वणंतराओ समायाओ ।। २८५७ ।। भमडंतो नियइच्छाए तत्थ कत्थ वि य पव्वहत्थिस्स । अग्घाडऊण गंधं पहाविओ झ त्ति त भंजतो गरुययरे रुक्खे तम्मयजलेण आलीढे । जोयणतिगप्पमाणं पत्तो भूमिं सवेगेण ।। २८५९ ॥ दिट्ठो य नाइदूरे वणकेली विविहकेलिदुल्ललिओ। नियजूहेण समाणं आसन्नजलासयं जंतो ।। २८६० ।। तम्मयजलस्स गंधं नियडे अग्घाइऊण अहिययरं । रुट्ठो पिट्ठीए पहाविऊण तं हणइ सुंडाए । २८६१ ।। दप्पुटुरेण तेण वि वलिऊण इमो वि वियडकुंभयडे । पहओ तो अन्नोन्नं लग्गा ते संगरे दोन्नि ।। २८६२ ।। आलविऊण परोप्परसुंडाओ दंडमुसलपहरेहिं । तह पहरिउं पयट्टा अह भग्गो झ त्ति वणकेली ।। २८६३ ॥ तस्समएऽणुप्पिच्छो समागओ तुह पुरं इमं राय ! । अहवा भयभीयाणं देसच्चाओ किमच्छरियं ।। २८६४ ।। इय निसुणिऊण राया तच्चरियं भणइ भवविरत्तमणो । अहह महामोहवसेण पाणिणो हुंति जह दुक्खी ॥ २८६५ ॥ तहा हि - उवहयविवेयनयणप्पसरा मोहंधयारतिमिरेण । विज्जुलयाचवलेसु धणजोवणरज्जमाईसु ।। २८६६ ॥ विवरीयजणियबोहो थिरत्तणासाए विणडिया दूरं । तं किं पि कुणंति जिया जयम्मि जत्तो दुही होति ।। २८६७ ॥ जीवे हणंति पभणंति अलियमविदिन्नयं च गेण्हति । सेवंति परकलत्ते आरंभपरिग्गहासत्ता ।। २८६८ ॥ अन्नं पि किं पि तं तं कुणंति जं होइ नरयगइमूलं । तिरियत्तहेउभूयं कुदेवकुनरत्तजणगं च ।। २८६९ ।। (चक्कलयं) तो भणइ मुणिवरिंदो राय ! अओ चेव एयमन्नाणं । कोहाइकसायाण वि दारुणतरयं विणिदिळें ॥ २८७० ।। भणियं च - अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थं हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः ॥ २८७१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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