Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 192
________________ चंदप्पहजिणदिक्खावण्णणं तो तं अतरूवे माहप्पपए पइट्ठियं दट्ठं । मणवयणा वि सयविसिट्ठरूवसंपत्तिसुहजणयं ॥ ५१०८ ।। जाया मम्मि चिंता ससुरासुरलोयदेवरायाण । एयस्स पुरो अम्हे न किंपि उयहिस्स व वहोला || ५१०९ ॥ (जुयलं ) तो चियमम्हाणं संथुणणिज्जो य सेविणिज्जो य । नमणिज्जो य महप्पा सव्वावत्थासु संजाओ || ५११० ।। इय चिंतिऊण पप्फुरियभत्तिविणमंतमोलिमालिल्ला । नमिऊण जिणवरिंदं संधुणणे तस्स संलग्गा ।। ५१११ ॥ होउ नमो तुह जिणवर ! भयमुक्कविसुद्धबुद्धिलाभगुण । मोहंधयारविद्धंसणम्मि दिणनायगसरिच्छ ।। ५११२ ।। अप्पाणमप्पण च्चिय मुणसि तुमं नाह ! सयलतत्तविऊ । भवविमुहाओ पवित्ती कहन्नहा तुज्झ एत्ताहे ॥ ५११३ ॥ तुह पहु हे निवसंतयस्स नज्जइ विरागया गरुई । रज्जाइ समिद्धीसुं कहन्नहा अपडिबद्धत्तं ॥ ५११४ ॥ विजणम्मि जणाइने गयतन्हो जत्थ तत्थ वा वसओ । लिप्पइ निराउलप्पा मलेण नो जेण कत्थ वि य ।। ५११५ ।। एसा सहस च्चिय रज्जसंपया पइसमुज्झिया जइ वि । तह वि हु गुणाणुरागा तुमम्मि परिखिज्जई अहियं ॥ ५११६ ॥ दक्खिन्न जलनिहिस्स वि पयईए अदक्खिणत्तमेवं ते । तदुवरि कहं तु अहवा अप्पडिबद्धाण एस गुणो ॥ ५११७ || भुवणेक्कसरन्नतुमं सरणमसरणाण होसु एत्ताहे । तुज्झ विओए दुक्खं चिट्ठामि अहं जओ एत्थ ॥ ५११८ ॥ तं चैव सुहय ! मह वल्लहो सि इय भाणिउं च तुह पासे । विरत्ता दूई तवसिरीए संपेसिया एत्ता ।। ५११९ ।। अहं थुइच्छणं भइ य एहेहि तुरियतुरिययरं । परिपंथिणो हरंती सज्जणसंगूसवे जम्हा || ५१२० ।। एवं सुविग्गे थूई कुतम्मि भणइ भुवणपहू । समओचियं खु भणियं कालविलंबो न ता जुत्तो ॥ ५१२१ ।। खमह नरिंदा ! इह जं एत्तिय कालं कराविया आणं । एसा वि हु परिहरिया जेण मए इयररमणि व्व ॥ ५१२२ ।। इय भणमाणो च्चिय भुवणबंधवे सयलतिहुयणस्सा वि । देवासुरनरकिंकरकराहया तूरसंघाया ।। ५१२३ ।। तह वहुउं पयत्ता तेसि रवेण बहिरिए भुवणे । कस्स वि न किं पि सुव्वइ वयणं कन्नागयं पि तया ॥ ५१२४ ।। (जुयलं) अवि य - पमोयभरनिब्भराणं देवाणं जयजयारवविमिस्सो । गायंति सुरविलासिणिमंगलरवजणियहलबोलो ।। ५१२५ ।। वज्र्ज्जतचडविहाउज्जवज्जसद्दो स को वि उच्छलिओ । जेण जयं संजायं सयलं पि हु सदबंभमयं । ५१२६ ।। (जुयलं ) तो देवा मणिमयविट्ठरम्मि विणिवेसिऊण तिजयपहुं । लग्गा न्हविडं सुपवित्तगंधजलकुंभकोडीहिं ॥ ५१२७ ॥ सुसुगंधगंधकासाइयाए न्हाणावसाणसमयम्मि । लूहित्तु विलेवणयं कुणंति हरिचंदणाईहिं ॥ ५१२८ ॥ पच्छा किरीडकुंडलहारंगयमाइ भूसणगणेहिं । कप्पतरुं पिव कुव्वंति भूसिउं दिव्वरयणेहिं ।। ५१२९ ।। तलिणसरयब्भधवले नासानीसासवायवहणिज्जे । तो दिव्वदेवदूसे परिहावंती य अइसहुमे || ५१३० || रविइंदुरिक्खसोहंत अंतरो सहइ सारयनहो व्व । संभूसिओ य वरभूसणेहिं तिजयप्पहू तइया ।। ५१३१ ।। गयरागो वि सुदूरे भूसणेहिं भूसंतए न वारेइ । उचिएसु अदक्खिन्नं जओ विरत्ताण वि अजुत्तं ॥ ५१३२ ।। अह न्हायविलित्तालंकिओ य भयवं सईए रइयाइं । कोउयसयाइं सह मंगलेहिं समं पडिच्छित्ता ।। ५१३३ ।। हरिस भरनिब्भरो उत्तरामुहो उट्ठिऊण कइवि पए । दाउं अक्खलियमणो आरूढो सुरकयं सिबियं ॥ ५१३४ ॥ Jain Education International १६१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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