Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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१७४
सिरिचंदप्पहजिणचरियं
सद्दिट्ठी तब्भज्जा तेहिं समं संगओ चुओ तुज्झ । ता इहई दु पुत्ते वीसासो नेय कायव्वो ।। ५४५० ।। एत्तो च्चेय पवेसो रक्खेयव्वो इमस्स जत्तेण । अस्संववहारपुराइएसु ठाणेसु नियएसु ।। ५४५१ ।। एगिदियाइपाडयमज्झे पविसेज्ज कह वि जइ एसो। दिज्ज चिरावत्थाणं तत्थ वि मा कह वि एयस्स ।। ५४५२ ।। जो वि तुह मिस्सनामो पुत्तो एसो वि मिच्छसम्माणं । अणुयत्तिं कुव्वंतो न मज्झ पडिहाइ सुद्धप्पा ।। ५४५३ ।। मज्झत्थं तेण इमो दंसेइ न किंपि जइ वि हु पयारं । तह वि हु सपक्खपुट्ठि न कुणइ जो तम्मि का आसा ॥ ५४५४ केवलमुदओ एयस्स थेवकालो त्ति तेण संकेमो । न भओ इमाओ तह वि हु सपुरपवेसो न देओ से ॥ ५४५५ ॥ चारित्तमोहनामो सहोयरो जो उ वल्लहो तुज्झ । एयस्स किं व भन्नउ पोढत्तं पत्थुए कज्जे ॥ ५४५६ ।। अविरइभज्जाइ जओ पुत्ता एयस्स तिन्नि चउवयणा । जलणगिरिथंभसागरनामाणो बहुलिया धूया ।। ५४५७ ॥ पयईए च्चिय ते अम्ह लोयवसवत्तिकारिणो बाढं । नियपिउणो तुह तुमए पुरक्कडा किं न काहिति ॥ ५४५८ ॥ तहा हि - जलणुद्दीवियचित्तो न गणइ पियरं न मन्नए जणणिं । लंघइ सहोयरं गुरुयणं च अवगणइ निरवेक्खो ।। ५४५९ ॥ उब्वियइ पावाओ धम्मम्मि मणं मणं पि न केरइ । किं वा पणट्ठसन्नो न कुणइ पाणी परायत्तो ॥ ५४६० ।। गिरिथंभेण थड्ढीकओ य अप्पाणमेव मन्नंतो। भुवणं पि गणइ तणमिव कुणइ अवन्नं गुरूणं पि ।। ५४६१ ।। भणइ य मज्झ वि अन्नो को वि गुरू अत्थि जेण अहमेव । जाइकुलरूवपंडिच्चपमुहगुणगणमणिकरंडो ॥ ५४६२ ।। सागरओ सागरमिव दुप्पूरयरं जणाइ लोयस्स । आसं आयासयरं अणंतयं पावसंजणयं ।। ५४६३ ।। परिवज्जतो एयाइ कुणइ परवंचणं तओ विविहं । नावेक्खइ परलोयं धम्मस्स न सम्मुहो होइ ।। ५४६४ ॥ उविजायगाईहिंतो अन्नं च होइ जइ निस्सो । तो अहिलसइ धणं चिय धणलाभे इच्छई रज्जं ॥ ५४६५ ॥ रज्जप्पत्तीए पुणो इंदत्तं तस्स संपयाए य । उवरुवरि कप्पसामित्तमेवमासा न तुट्टेइ ।। ५४६६ ।। जा वि इमाणं भइणी वढुत्तरकूडकवडमाईणि । सिक्खावंती सययं गुरुत्तणं पयडइ जणस्स ।। ५४६७ ।। तीए वि हु वसवत्ती अन्नं हिययम्मी किं पि धारेइ । अन्नं भासइ वायाए कुणइ अन्नं च काएण ।। ५४६८ ॥ एवं च माइपिइभाइसामिगुरुमित्तपमुहसयलजणं । निरवेक्खं वंचंतो बीहेइ न कुगइपडणाओ ।। ५४६९ ।। ता तुह समीहियत्थस्स साहगाई इमाइ सव्वाइं । इय मुणिऊण सकज्जे तुमए वावारियव्वाई ।। ५४७० ॥ किं च इमाणं नवहा समाइणो सहयरा महासुहडा । अण्णे वि संति निद्दा लोयवसीयरणसत्तिजुया ॥ ५४७१ ।। ते य इमेहिं वावारिएहिं वावरिय च्चिय हवंति । ता सव्वे च्चिय एए गुरुयसमाणेण दट्ठव्वा ॥ ५४७२ ॥ जो वि महामंडलिओ आउयराओ कओम्ह जणएण । अस्संववहारपुरे सो दलूं अम्ह बहुलोयं ॥ ५४७३ ॥ नियपुरिनयणिच्छाए जइ वि न आउट्ठिई बहु देइ । अंतमुहत्ताउ च्चिय संहारं कुणइ तस्स सया ॥ ५४७४ ।। तह वि मए नियउदएण चेव अन्नत्थ निज्जमाणो सो । धरिओ तत्थेव पुणो पुणो वि कारविय उप्पत्तिं ॥ ५४७५ ॥ न य एवं किज्जंते मए समुव्वहइ वइरभावं सो । केवलमणंतलोयं इच्छइ काउं सनयरीसु ।। ५४७६ ।।
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