Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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चन्द्रप्रभस्वामिचरितान्तर्गतानां सुभाषितपद्यानामनुक्रम : अकार्ये विसयासाविणडिज्जंतमाणसो कुणइ तह अकज्जाई । न गणइ दुक्खइदुक्खं, न य संकइ पावबंधाओ ।। २५६७ ॥ अकुशलकर्मोदये अकुसलकम्मोदइणो बुझंति सयं न न य परुवएसा । समई च्चिय पुन्नग्गलाओ जाणंति करणिज्जं ॥ २९५१ ॥ अतुलनीये कणयं व ताव पुरिसो गरुओ जाव न परिहरेहिं कयतुलणो । तोलिज्जतो उण तक्खणं पि गुंजाहलाइ समो ॥ २९९८ अनवस्थितस्वस्पे एगतेण पिओ च्चिय न को वि परमत्थओ जणो दिट्ठो। अहवा विअप्पिओ च्चिय भवम्मि अणवट्ठियसरूवे॥५१९० कज्ज अहिगिच्चेगस्स जो पिओ सो वि तव्विणासम्मि । जायइ पेसो अन्नस्स तह वि इट्ठो उदासो वा ॥ ५१९१ ।। जो च्चिय मित्तं एगस्स सो वि अन्नस्स वइरिओ होइ । ता को कस्स हविज्जा मित्तममित्तो व निच्छयओ ॥ ५१९२ जं चिय रागावत्थाइ सुंदरं तं पि मंगुलं भाइ । रागविमुक्के चित्ते अणुहवगम्मं च तत्तमिणं ॥ ५१९४ ।। अन्धत्वे जच्चंधो व्व न पेच्छइ मयमूढो अत्तणो हियं अहियं । सो अहव दिट्ठिए च्चिय न नियइ इयरो वि मणसा वि ।। २९१८ अनिग्रहे जो इंदियाइं न तरइ, निग्गहिउँ न य मणं निवारेउं । तस्स तवे अहिगारो, दिट्ठो तन्निग्गहट्ठाए ॥ १७७८ ।। जिभिंदियस्स वसगा जम्हा सेसिंदिया पयडमेयं । तन्निग्गहेण तम्हा, सेसाण वि निग्गहो होइ ॥ १७७९ ।। जिब्भिंदिउ नायगु वसि करहु, जसु आयत्तई अन्नई । जं मूलि विणट्ठइ तरुवरह, अवसई सुक्कहिं पन्नई ।। १७८० अनित्यत्वे पडुपवणपहयदेवउलसिहरसंठियधयं चलचलाइं । जीवाण जीयजोव्वणबलाई तह संपयाओ य ॥ ७० ॥ तिव्वज्झवसाणेण वि, हियए संघट्टहेउणा जस्स । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ।। ७१ ।। जल-जलण-सत्थ-विस-भयवालाइनिमित्तमेत्तओ जस्स । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ।। ७२ जस्स बलं आहाराओ चेव तत्तो वि कह वि गहियाओ। जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ।। दाह-जर-सास-सूलाइवेयणाहिं च जस्स तिव्वाहिं । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ।। ७४ ।। तेउल्लेसाइपराघायाओ जस्स विविहरूवाओ । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा || ७५ ॥ तयविसभुयंगमाई, फासेण वि जस्स विसमरूवेण । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ।। ७६ ।। आणा-पाणनिरोहे, सकए अहवा परक्कए जस्स । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ।। ७७ ।। इय विविहोवक्कम-मज्झवत्तिणो जीवियस्स न थिरत्तं । अइभुक्खियनरमुहगयसरसफलस्सेव संसारे ॥ ७८ ।।
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