Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 174
________________ चंदप्पहजिणजम्मवण्णणं १४३ अन्नेक्कि दिव्वु धरेइ छत्तु, जिणु अवरि लेवि सुरगिरिहिं पत्तु । तत्थाइपंडुकंबलसिलाए, सीहासणि बइसइ निम्मलाए ॥ ३७१९ ॥ पच्छा वि एत्थु सवि देविराय, संपत्ततेत्थु गरुयाणुराय । अणुवमविभूइलंकरियदेह, संपावियसोहाइसयरेह ॥ ३७२० ।। तयणंतरि अच्चुयसुरवरिंदु, आणवइ अमरपरिवारविंदु । भो भो जिणमज्जणकज्जि होह, उज्जमिय सव्वि तुम्हि अमरजोह ।। ३७२१ ।। अह तस्स आण सिरि धरिवि देव, परिचत्तसयलविक्खेव सेव । कयविविहकलसभिंगारसार, रमणीयगरुयबहुरच्छभार ।। ३७२२ ।। आणेविणु खीरोयाइठाण, जल कुसुमकमलकुवलयपहाण । अन्नि वि जिणन्हवणोचियपयत्थ, कयअच्चुयसुरवरअंतियत्थ ।। ३७२३ ।। तो अच्चुयनाहुखिविय धूवू, आरंभइ जिणमज्जणु सुरूवु । सुरतरुवरपुप्फंजलिपवित्त, पणवन्न लेवि जिणचलणि खित्त ।। ३७२४ ।। अठ्ठत्तरसहसि सुवन्नमयह, अठुत्तरसहसिं रुप्पमयहं । अठुत्तरसहसिं मणिमयाहं, अठ्ठत्तरसहसिं मिम्मयाहं ॥ ३७२५ ।। अट्ठहियसहसि मणिसुवन्नियाहं, अट्ठहियसहसि मणिरुप्पियाहं । अट्ठहियकणयमणिरुप्पियाहं अट्ठहियसहसि चंदणघडाहं ।। ३७२६ ।। इय अच्चुइंदि कलसहं भरेण, न्हावियउ जिणिंदु बहुवित्थरेण । परिवारजुत्ति अइगरुयभत्ति, अप्फालियविविहाउज्ज झ त्ति ॥ ३७२७ ॥ तो कमि कमु सेससुरिंदवग्गि, किउ ण्हवणु विसेसिं पुलइअंगि । तो उट्ठिउ सोहम्मउ सुरिंदु ईसाणपहुहु अप्पिवि जिणिंदु ॥ ३७२८ ॥ तो हरिसिण अप्पं पंचवियप्पर, सो सोहम्मउ जिंव करिवि () । सक्कासणि उवविट्ठउ भत्तिविसिट्ठउ नियउच्छंगिं जिणु धरिवि ॥ ३७२९ ।। तयणु सोहम्मसामी वि वेउव्विए, करिवि चत्तारि महवसहरूवाहिए। धवलगुणजिणियहिमकिरणकरदंडए, नाइ जिणवरह अइविमलजसपिंडए ॥ ३७३० ।। तेसि सिंगग्गओ खीरधारट्ठयं, उवरिमुहमुट्ठवित्ताण कसु विसिट्ठयं । गयणदेसम्मि मेलवि य तं एगओ, जिणह सीसम्मि पयडेइ लहुवेगओ ।। ३७३१ एवमच्चब्भुयं पढमजिणन्हवणयं, करिवि सेसिंदमग्गेण पच्छा तयं । सुरहिसोमालकासायवत्थेण तो, लूहिउं जिणवस्संगमभिउत्तओ ॥ ३७३२ ।। अगरुकप्पूरसम्मिस्ससच्चंदणं, लेवि गोसीसनामं सुराणंदणं । कुणइ तो जिणवरंगस्स सुविलेवणं देइ हारड्ढहाराइ अह भूसणं ।। ३७३३ ।। पारियायाइ कुसुमेहिं पुण पूइउं, देवदूसं च पवरं नियंसाविउं । धूवमुक्खिवियघणसारगंधुक्कडं, अट्ठमंगलयमालिहइ रूवुब्भडं ॥ ३७३४ ॥ मल्लियामालईमाइकुसुमुक्कर, मुयइ आजाणुमेत्तं च बहुवित्थरं । कुणइ तो लोणपाणीयउत्तारणं, रयणमणिघडियमारत्तियं सोहणं ।। ३७३५ ।। मंगलीयं च मंगलपईवाइयं, सयलसुरवग्गसंजुइण सव्वं कयं । हरिसभरनिब्भरा देवदेवीगणा, झ त्ति नच्चंति तोरइयविविहस्सणा ॥ ३७३६ ।। पुण वि भत्तीए पणमित्तु जिणचलणए, दिव्वझुणि कुणवि बहुविविहसंथवणए । हरिसरोमंचकंचुइयमत्ताणयं संधरता सुरा जंति सट्ठाणयं ।। ३७३७ ॥ इय जन्मभिसेयह कयजयसेयह, अंतिं सुरिदिं जिणिंदु लहु । अप्पिउ नियजणणिहि हरि ओसवणिहि सई गउ सग्गह सुरहं पहु ।। ३७३८ ।। एवं संखेवेणं सोहम्माईसुरिदसंबद्धा । जम्मभिसेयविहाणे, कहिया वत्तव्वया का वि ॥ ३७३९ ॥ संपइ पुण वित्थरओ भणामि एवं पि कक्कसूरीण । नियगुरुगुरूण गाहाहिं सारसिद्धंतरइयाहिं ।। ३७४० ।। निव्वत्तिए समाणे, दिसाकुमारीहिं जायकम्मम्मि । सव्वम्मि जिणवराणं सव्विड्ढीए ससत्तीए ।। ३७४१ ॥ एत्थंतरम्मि तेसिं सुहाणुभावाहि जिणवरिंदाणं । अन्नोन्नकरकरंबियकेरंतरछुरियमणिनियरं ॥ ३७४२ ।। सोहम्मदेवलोए, सीहासणमुत्तमं सुरवइस्स । सक्कस्स चलइ सासयभावापन्नं पि सयराहं ॥ ३७४३ ।। अह तम्मि चलियमित्ते, ओहिम्मि पउंजियम्मि सक्केणं । नाए जिणिंदजम्मे, जं कीरइ तं निसामेह ॥ ३७४४ ॥ ओयरिय सपीढाओ, हिमगिरिसिहरा व आसणाओ तओ। आगंतुमभिमुहं सो सत्तट्ठपयाइं भरहस्स ॥ ३७४५ ।। नसिऊण दाहिणिल्लं जाणुं भूमीए कोमलसुहाए । आउंटिऊण वामं, रंभार्थभं व भत्तीए ।। ३७४६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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