Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 153
________________ १२२ सिरिचंदप्पहजिणचरियं अन्नेहिं पुण भणियं - परपरिओससुहासाइ दिति दुक्खज्जियं धणं धीरा । किं पुण अभयपयाणं तवोवरिठं च इठं च ॥ ३१५८ ॥ इय सुणिऊण नरिंदो, मुणिवयणं भणइ विणयपणयसिरो। मुणिनाह ! एवमेयं, सव्वं आइससि जं सि तुमं ।। ३१५९ ।। अन्नाणमोहमूढा, किंतु न याणंति किं पि इह जीवा । धत्तूरिया किमहवा, न हुंति विवरीयमइविहवा ।। ३१६० ।। एवं च जइ वि एवं, तुम्हं वयणेण तह वि मज्झ मणं । कययफलेण व नीरं, हयकालुस्सं कयं अज्ज ।। ३१६१ ।। अज्जप्पभिइ निवित्तिं, ता मन्झ पयच्छ जीवहणणम्मि । हियकामो न हु कोइ वि निवडइ कूवम्मि जाणतो ॥ ३१६२ ।। मुणिणा तो संलत्तं, भो भो नरनाह ! जीवहणणाओ। किं सव्वहा निवित्तिं, करेसि किं वा वि देसेण ।। ३१६३ ।। जंपइ नरनाहो तयणु नाह ! साहेसु केरिसी होइ । तह सव्वहानिवित्ती, देसेण व केरिसी एसा ॥ ३१६४ ।। तो मुणिणा वित्थरओ, जइधम्मो तस्स साहिओ सव्वो । बज्झन्भंतरसावज्जजोगपरिवज्जणारूवो ॥ ३१६५ ।। भणियं च इमा नरवर ! नायव्वा सव्वहा वि हु निवित्ती। सावगधम्मो जो पुण, देसनिवित्ती हु सा नेया ॥ ३१६६ ॥ पंचाणुव्वयपरिवालणाइरूवो इमो जओ भणिओ । तत्थ य थूलाणं चिय रक्खा नो सुहुमजीवाणं ॥ ३१६७ ।। जीवा दुविहा वि पुणो रक्खेयव्वा जिणिंदधम्मम्मि । ताणं चिय, रक्खट्ठा जं सेसवयाई भणियाई ।। ३१६८ ॥ संसारे जीवाण य दुक्खनिविन्नाण सोक्खतिसियाण । सासयसोक्खो मोक्खो, अक्खेवेणं इओ चेव ॥ ३१६९ ॥ इय देसियम्मि मुणिणा, राया बाहजलभरियनयणजुओ । कंपंतसव्वगत्तो, भणइ सउव्वेयमिइ वयणं ।। ३१७० ।। हा हा हओ म्हि मुणिवर ! एएणं चेव पावकम्मेण । अन्नह तइ पत्ते वि हु, कह धम्ममई न उल्लसइ ।। ३१७१ ।। तहा हि - पज्जलइ कसायदवो अज्ज वि बाहइ य गाढ विसयतिसा। समयंते वि हु तइ धम्मनीरए मज्झ मुणिवसभ ! ॥ ३१७२ ।। भणइ तओ मुणिवसभो मा झूरसु किं पि एत्थ नरनाह ! धन्नो सि तुमं पत्तो, मज्झसमीवे जमिहि पि ॥ ३१७३ ॥ चारित्तावरणिज्जं, जइ वि न कम्मं खओवसममेइ । तुह तह वि देसविरई न तेण आवारियव्व त्ति ॥ ३१७४ ।। तइयकसायाणुदए पच्चखाणावरणनामधेज्जाणं । देसेक्कदेसविरई चरित्तलंभं न उ लहंति ।। ३१७५ ।। मूलिल्लकसायाणं तुज्झ वि उदओ न होइ अट्ठण्ह । सम्मदंसणमूलं, ता गिण्हसु देसविरई ति ।। ३१७६ ।। विसयतिसाबाहा वि हु भणिया जा सा वि देसविरईए । न कुणइ नरिंद ! नासं तहिं पि एवं भणंति विऊ ॥ ३१७७ ।। विसयसुहपिवासाए, अहवा बंधवजणाणुराएण । अचयंतो बावीसं, परीसहे दुस्सहे सहिउं ।। ३१७८ ॥ जइ न करेज्ज विसुद्धं सम्मं अइदुक्करं समणधम्मं । तो कुज्जा गिहिधम्मं मा बज्झो होज्ज धम्माओ ॥ त्ति ॥ ३१७९ ।। एमाइ देसणाए आसासेऊण तं मुणिवरिंदो । सम्मत्तमूलपंचाणुव्वयगहणं करावेइ ।। ३१८० ॥ सम्मत्ताइसरूवाइ मुणिसयासम्मि पुच्छइ पुणो वि । कहइ मुणी अविसन्नो जा चित्ते परिणयमिमस्स ॥ ३१८१ ।। तयणंतरं च राया, नमिऊणं मुणिवरस्स पायजुयं । निययपुरं पइ गच्छइ, मुणी वि अन्नत्थ विहरेइ ।। ३१८२ ॥ सम्मत्तथिरीकरणत्थमेव तेण य इमं जिणाययणं । कारवियं अइरम्म, वंसस्स वि भवतरंडसमं ॥ ३१८३ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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