Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 121
________________ सिरिचंदप्पहजिणचरियं चिंतिज्जतं सव्वं पि एयमाभाइ तत्तबुद्धीए । सुमिणिंदयालसरिसं, खणमेत्तमुवाहिरमणीयं ।। २३२९ ।। अन्नं च चक्कवट्टित्तमेत्थ अइबहुयपुन्नरूवं ति । भणइ जणो मह पुण अज्ज देवि ! विवरीयमाभाइ ।। २३३० ॥ कह नाम ताई पुन्नाई जाइं पावस्स कारणं इंति । रज्जं च पावरूवं रागद्दोसाइजणणाओ ।। २३३१ ।। इच्छाअणिवित्तीए, आरंभपरिग्गहा जहिं गया। जायंति जियाण सया, तं पावं कह न चक्कित्तं ॥ २३३२ ।। एगिदियाइपंचिंदियंतजीवाण जत्थ वाघाओ । जायइ अणवरयं चिय तं पावं कह न चक्कित्तं ॥ २३३३ ।। हाससयकोहलोहेहिं जत्थ जीवोवघाय अलियं च । जंपिज्जइ अणवरयं, तं पावं कह न चक्कित्तं ।। २३३४ ।। सच्चित्ताचित्तोभयदव्वाइं जणस्स जत्थ घेप्पंति । इच्छं विणा हढेण वि तं पावं कह न चक्कित्तं ।। २३३५ ।। जत्थ न मेहुणविरई., जत्थ न इंदियजओ न दंडाणं । निग्गहणं थेवं पि हु तं पावं कह न चक्कित्तं ।। २३३६ ।। ता पावसरूवं पि हु एयं पुन्नोदयस्स एवं ति । भणइ जणो उण तं खलु विवक्खनामस्स तुल्लं ति ॥ २३३७ ।। तहा हि - अंगारओ वि भन्नइ जह लोए मंगलो त्ति नामेण । विट्ठी भद्दा विसमवि महुरं लोणं च मिट्ठति ।। २३३८ ॥ तह चेव पावकरणं पावसरूवं पि एयमिह पयर्ड । भन्नइ जणम्मि पुन्न, बुद्धिविवज्जासभावेण ।। २३३९ ॥ जे खलु विमूढचित्ता, रज्जं कप्पंति सुहसरूवं ति । ते रइहरं ति मण्णंति सप्पबिलसंकुलं पि गिहं ।। २३४० ॥ जे उण तिहुयणपुज्जा हवंति रज्जम्मि वट्टमाणा वि । ते पुव्वविहियसुकयाणुभावसंभूयमाहप्पा ।। २३४१ ।। पुन्नाणुबंधिपुन्नं अहवा वि हु पुनपावखयहेऊ । तो जेसिं तेसिं चिय, रज्जं पुन्नं ति सिद्धमिणं ।। २३४२ ।। पावाणुबंधिपुन्नोदएण जं पुण हविज्ज रज्जं पि । तं पावं चिय सिद्धं निरयाइनिंबधणत्तेण ॥ २३४३ ॥ किंच - पुनं वा पावं वा, हवेउ रज्जं तहा वि जइ होज्ज । निरुवद्दवं सरीरं, ता जुत्तो तम्मि पडिबंधो ।। २३४४ ॥ अह पुण इमं जराए रोगेहिं व अहव सव्वनासेण । पीडिज्जई अयंडे, कयलीखंभो व्व पवणेण ॥ २३४५ ।। ता किं इमाए लच्छीए चित्तरूवाइ अहव रज्जेण । तयभावे निव्विसयं सयलं गयणयलकुसुमं व ।। २३४६ ॥ तहा - विसयामिसलोभाओ मच्छ व्व विणासमिति इह जीवा । बीहंति न पावाणं, जाणंति न नारयाइदुहं ॥ २३४७ ॥ अवरं च किं पि पडिहाइ जमिह रमणीजणाए रमणिज्जं । रविकिरणतवियपालेयपिंडमिव तं पि पलयहयं ॥ २३४८ ॥ मणभवणे पज्जलिए न किंचि सुविवेयदीवतेएण । पेच्छामि नियडमाणं मोहतमे सयलमविभुयणं ॥ २३४९ ।। ता लोयवत्तिणीए, संचरिऊं कह णु जुत्तमेत्ताहे । सद्दीट्ठीण वि अम्हाण अंधमग्गे व्व सावाए ।। २३५० ।। अवि यअविवेयवाउणा जो, कसायविसइंधणोवचयपत्तो । उल्लासिओ भवग्मी, तं झाणजलेण विज्झविमो ॥ २३५१ ।। जीवो चिणेइ कम्मं, सरागहियओ विमुच्चइ विरागो । ता रागहेउरज्जं, चइडं मोक्खत्थमुज्जमिमो ।। २३५२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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