Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 123
________________ सिरिचंदप्पहजिणचरियं संजमिओ त्ति पसिद्धिं, पत्तो वि कहं नु बंधणविहीणो । कह वा निक्कामो वि हु, कामे पूरेसि पणयाण ।। २३८१ ।। दारियमोहो वि कहं अप्पडिबद्धो मुणिंद ! महिलासु । अगहियसुवन्नसिद्धी वि कह णु निक्किचणवरिट्ठो ।। २३८२ कह निम्ममो वि भुवणत्तयस्स सामित्तणं पयासेसि । कह वा नरिंदसम्माणिओ वि तं रायपरिचत्तो ॥ २३८३ ।। मयरद्धयढयरेणं, विणडिज्जतं कसायचोरेहिं । लुटिज्जतं मं नाह ! रक्ख तुह सरणमल्लीणं ॥ २३८४ ।। जं पायजुयलदंसणउक्कंठियमाणसस्स मह नाह !। तुम्हागमणं तं मुच्छियस्स पीऊसवुट्ठिसमं ॥ २३८५ ।। तुरयगयपत्तिरहवरनरिंदनिहिरयणइत्थिवग्गूहिं । संसाररक्खसाओ नत्थि परित्तागमं नाह ! ।। २३८६ ॥ मोत्तुं तुम्ह पसायं अचिंतचिंतामणिं व अइदुलहं । सासयसुहेक्कमूलं निद्दलणं पावपडलस्स ।। २३८७ ।। जेहिं तुमं सामि ! विचिंतिओ सि तेसु वि कयत्थया जाया । जे पुण तुट्ठा पेच्छंति ताण भण किं न पज्जत्तं ॥ २३८८ तं चिय निवडताणं अवलंबो नरयअंधकवम्मि । तं चेव मोक्खधवलहरसिहरचडणम्मि सोवाणं ।। २३८९ ।। उवसमदमाइएहिं वियसियकुंदुज्जलेहिं तुह नाह ! । पायडियं भुवणमिमं गुणेहिं चंदस्स व करेहिं ।। २३९० ।। देसणपभायसमए नाणपहापयडिए वि पइमग्गे । जाण न दिट्ठी विमला मुणिरवि ! ते घूयसारिच्छा ।। २३९१ ॥ हिययगयं भिंदंतस्स विविहभवसंभवं पि तुज्झ तमो। नवरवि ! जेहिं न दिळं वयणं ते अहलजम्माणो ।। २३९२ ॥ जं न चिराओ वि सक्का सिवपयविं लंभिउं परे पउणं । सिग्घं तं पावितो न कुणसि मणविम्हयं कस्स ।। २३९३ ।। सासयसुहसिरिपडिबंधणा य विजए कसायसत्तूण । भावुल्लासो जो नाह ! तुम्ह सो तुम्ह जइ विसओ ।। २३९४ ॥ एवं काऊण थुई मुणिणो पुण पत्थणं कुणइ राया। देहि मह नाह ! निययं दिक्खं सह दुविह सिक्खाए ।। २३९५ ॥ जओ - नीसेसदुक्खतरुकंदकप्पणी तियसमोक्खसुहजणणी । घणमोहपडलनिन्नासणी य दिक्खा तुह मुणिंद ! || २३९६ ।। इय भणिऊण निसन्नो, पुरओ सो मुणिवरस्स विणएणं । वसुहायलम्मि सुद्धे, जोडियकरकमलवरजुयलो ।। २३९७ ॥ एत्थंतरम्मि समयं, सव्वतवस्सीण तम्मि दिट्ठीओ । पडियाओ सविग्गहविणयरासिसंकं वहताणं ॥ २३९८ ॥ मुणिणा वि धम्मलाभप्पयाणपुव्वं इमस्स संलत्तं । नरवर ! उचियाचरणं, कायव्वं चेव विउसेहिं ॥ २३९९ ।। उचियाचरणम्मि जओ, न पवित्ती अणुचिए वि न निवित्ती । कल्लाणहेउभूया भवाभिनंदीण होइ भवे ।। २४०० ॥ सयमेवब्भुवगमिउं तं तुमए जं मए य भणियव्वं । सविवेया उ च्चिय अहव होज्ज गरुयाण सुपिवत्ति ।। २४०१ ।। इय एवमाइवयणेहिं नरवई नट्ठदुट्ठ विसयतिसं । अणुसासिऊण सूरी, अणुमन्नइ दिक्खगहणत्थं ।। २४०२ ।। एवं पयट्टसंभासणाण दोण्हं पि ताण अन्नोन्नं । तक्कालसमुग्गयदसणकिरणउज्जोवियदिसाण ।। २४०३ ।। धरिएक्कचंदगयणयलजिणणवंछाइ महियलं सहइ । जणमणहरपयडियइंदुजुयलजुत्तं व तव्वेलं ॥ २४०४ ।। (जुयल) दिक्खाणुन्नालद्धीए नरवई जायबहलरोमंचो। तो सामयदिट्ठीय व तक्खणकोरइयदेहलओ ।। २४०५ ।। एत्थंतरम्मि पुणरवि नमिऊण गुणप्पहस्स पायजुयं । सूरिस्स भणइ जा कुणइ रज्जसुत्थं मुणिपहाण ! ।। २४०६ ।। ता तुम्ह चरणमूले, दिक्खागहणेण माणुसत्तमिणं । सहलीकरेमि जलनिहिपडियं रयणं व अइदुलहं ।। २४०७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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