Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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सिरिचंदप्पहजिणचरियं
तहा हि - जयरन्ना किर जाओ, जयसिरिदेवीए जायमेत्तो य । केरलरन्ना गहिओ, सिरिदेवीए य पुत्तो त्ति ॥ ४३९ ।। जा य किर मज्झ भइणी, सा पुण जाया वि निययजणणीए । न य जाणिया मणुस्सी वि पालिया सीहिणीए वणे ।। ४४० ता चिंतिउं पि तीरइ, न चेव कम्माण जो कडुविवागो। सो वि इह अणुभविज्जइ, भवम्मि भीमम्मि जंतूहिं ।। ४४१ वोसिरिऊण पुरीसं व जाइअं वा न खाइ नहरत्था । न य गंधबुद्धसत्ता, विसं परं वा मुणंति हरी ॥ ४४२ ॥ ता तं न अत्थि संभवइ जं न देहीण कम्मुणा एत्थ । पोयाण व वाएणं, हियमहियं वा भवसमुद्दे ॥ ४४३ ॥ ता जयसु तह नराहिव ! कम्मदुमुम्मूलणं जहा होइ । दुक्कम्महेउगइआगईओ जेणं न हुंति भवे ॥ ४४४ ॥ सिरिधम्मदेवराया, तं सोउं जायसुद्धबुद्धिधणो । नमिऊण मुणिं सेणाइ सह गओ सिरिपुरं तयणु ॥ ४४५ ॥ जम्मि दिणम्मि स पत्तो, राया कारुण्णेण जगस्स वि भाया। नियपट्टणि कयहट्टसुसोहे, सग्गपुरि व्व जणियजणमोहे ॥ ४४६ तम्मि दियहम्मि आबद्धवरतोरणा, जायगिहपंतिनच्चंतबहुघोरणा।। जाणदारेसु दीसंति कुंभावली, वयणकयसोहसुहपत्तपुप्फावली ॥ ४४७ ।। नाणाविलासरसभाववियक्खणाओ, नच्चंति चारुकरणेहिं विलासिणीओ। मंचाइमंचउवरिल्लयभूमियासु, नं आगयाओ तिदिवाओ सुरंगणाओ ॥ ४४८ ।। इच्चाइविभूईए, सिरिपुरनयरस्स सोहमिक्खंता । सघरसहट्टसदेउलसमढसपायारसपुरस्स ।। ४४९ ।। दाविज्जतो अंगुलिसएहिं अनलियगुणेहिं थुव्वंतो । मज्झं मज्झेण पुरस्स आगओ निययधवलहरं ॥ ४५० ॥ तत्थ य पुरवुड्ढाहिं, अणलियवयणाहिं दिन्नआसीसो । सिरिपुरमहिलाहिं तहा, कयबहुविहमंगलायारो ॥ ४५१ ।। मोत्तियपवालमाणिक्करयणरयणाए रइयसत्थियए । उवविट्ठो अत्थाणम्मि आसणे कणयसीहजुए ॥ ४५२ ।। तत्थ य - संभासिऊण कयदाणमाणसक्कारमाइववहारं । रायन्नगणं संपेसिऊण लग्गो सकज्जेसु ।। ४५३ ॥ अह विविहविलासुल्लाससंसग्गसारं, चिरमणुहविऊणं रज्जमिंदो व्व फारं । सरयसमयरम्मं तारिसं तं विलासं, लहुवलयमुवित्तिं पेच्छिउं मेघमालं ॥ ४५४ ॥ कयविसयविरागो, दिन्न अत्थत्थिचागो, विमलमइपहाणो अन्नया सावहाणो । वियरिय सिरिकते रायलच्छि सपुत्ते, सिरिपभमुणिपासे लेइ साहुव्वयं से ॥ ४५५ ॥ काऊण दुक्कतरं तवसंजमं च, आउक्खयम्मि अविराहिय धम्ममग्गो । मोत्तूण देहमिणमो पढमम्मि कप्पे, जाओ दुसागरठिई हरितुल्लदेवो ॥ ४५६ ॥ नामेण जो सिरिहरो त्ति सुरंगणाणं, नाणाविहाण ललिएसु अइप्पसत्तो । सोक्खेण सारजसदेवभवोच्चिएण, कालं गमेइ जिणभत्तिपरायणो सो ।। ४५७ ।। इय चंदप्पहचरिए, जसदेवंकम्मि बीयपव्वम्मि । उक्खित्तअत्थनिव्वाहणाए सव्वं परिसमत्तं ॥ ४५८ ॥ संपइ तइयावसरो, तम्मि य सिरिहरसुरो जहा चविउं । उप्पण्णो जियसेणो, तहेव साहेमि तच्चरियं ।। ४५९ ॥
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