Book Title: Chandappahasami Chariyam
Author(s): Jasadevsuri, Rupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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इन्द्र ने भगवान की प्रतिकृति को रानी के पास रखा । भगवान को गोद में लेकर वे मेरु पर्वत पर गये । वहां उनको विधिपूर्वक नहला कर बड़े उत्साह से भगवान का जन्मोत्सव किया । जन्मोत्सव के पूर्ण होने पर इन्द्र भगवान को लेकर उनकी माता के पास आया और भगवानकी प्रतिकृति को हटाकर उनको माता के पास रख दिया । बालक की रक्षा के लिए कुछ देवों को भगवान की सेवा में रखकर इन्द्र और देवगण अपने अपने स्थान पर चले गये।
इधर भगवान का जन्म हुआ जान कर महासेन राजा ने भी बड़ा उत्सव किया । प्रजाजनों ने भी उत्सव मनाया । बन्दियों को कैद खाने से मुक्त किया । याचकों को यथेच्छ दान देकर उन्हें संतुष्ट किया। जब भगवान माता के उदर में थे तब माता को चन्द्रपान का दोहद उत्पन्न हुआ था अतः बालक नाम चन्द्र रखा । चंद्रप्रभ बालक चन्द्र जैसा ही सौम्य और चित्ताकर्षक था । इन्द्र ने भगवान के अंगूठे में अमृत भर दिया । चन्द्रप्रभ अंगठे का पान करते हए बीज के चन्द्र की तरह बढने लगे। अपने बाल मित्रों एवं देवों के साथ क्रीडा करते हुए व सब के अत्यन्त प्रिय हो गये । उनको बालसुलभ चेष्टा एवं क्रीडा देख कर सब लोग बड़े प्रसन्न होते
थे।
(आठवां पर्व पृ. १५१) __मृगलांछन से सुशोभित भगवान क्रमशः युवावस्था में आये । महासेन राजा ने उचित समय जान कर अनेक सुन्दर राजकन्याओं के साथ उनका उत्सव पूर्वक विवाह किया। भगवान अनासक्त भाव से रानियों के साथ भोग भोगते हुए अपना समय व्यतीत करने लगे । राजा महासेन ने योग्य समय पर चन्द्रप्रभ को युवराज पद पर अधिष्ठित किया । चन्द्रप्रभ को एक पुत्र हुआ। उसका नाम चन्द्र रखा । महासेन राजा ने अब अपनी वृद्धावस्था देख चन्द्रप्रभ को राज्य का सारा भार सौप दिया और राज्यभार से निवृत्त हो वे दीक्षित हो गए । __चन्द्रप्रभ के राज्यकाल में प्रजा अत्यन्त सुखी थी। दुर्भिक्ष, अकालमृत्यु, स्वचक्र परचक्र भय, महामारी जैसे जीवन को अन्त करने वाले भयानक रोगों से प्रजा मुक्त थी । विरोधि राजा भी चन्द्रप्रभ के सेवक बन गये।
एक बार चन्द्रप्रभ राजसभा में अपने सामन्तों एवं मंत्री मण्डल के साथ बिराजमान थे। एक वृद्ध जिसका सारा शरीर जर्जरित था । लाठी टेकता हुआ राजसभा में आया और भगवान को वन्दन कर बोला - भगवन् ! एक नैमित्तिक ने मेरा मृत्युकाल अत्यन्त निकट बताया है । आप तो मृत्युंजयी हो । मुझे महाभयकारी मृत्यु से बचाईए । आप समर्थ पुरुष हो । आपके सिवा मेरी कोई भी रक्षा नहीं कर सकता। आप तो यम के भी स्वामी है । असंख्य देव आप की सेवा करते हैं तो मेरा रक्षण भी आप ही करें और मझे मत्य के भयसे मुक्त करें । भगवान ने वृद्ध से कहा - हे वृद्ध ! संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति पैदा नहीं हुआ है जो मृत्यु से व्यक्ति की रक्षा कर सके । जो जन्म लेता है वह अवश्य ही मरता है । हम शुभ कार्य करके ही मृत्यु के दुःख को दूर सकते हैं। ऐसा सुनकर वृद्ध पुरुष अचानक ही अदृश्य हो गया। भगवान ने अवधिज्ञान से जाना कि यह देव मेरा पूर्वभव का मित्र है । मुझे उद्बोधन करने के लिए ही यह वृद्ध के रूप में मेरे पास आया है । भगवान को वैराग्य हुआ । उन्होंने दीक्षा लेने का निश्चय किया । भगवान का दीक्षा भाव जान कर नौ लोकान्तिक देव उनके पास उपस्थित हुए। उन्होंने भगवान को उद्बोधन किया और कहा - सर्व प्राणियों के हित के लिए आप तीर्थ प्रवर्तन करें । देव भगवान को उद्बोधित कर अपने स्थान पर चले गये ।
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