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[ ५६ ] सकल क्रिया नु मूल ते श्रद्धा, तेहनु मूल जे कहिये । तेह ज्ञान नित नित वंदी जे ते विण कहो केम रहिये रे ।
॥ भविका० ३३॥ पांच ज्ञान माहिं जेह सदागम, स्नपर प्रकाशक तेह । दीपक परे त्रिभुवन उपकारी, वली जेम रविशशि मेह रे।
॥ भविका० ३४ ॥ लोक ऊरध अध तिर्यग ज्योतिष, वैमानिक ने सिद्धि । लोकालोक प्रगट सविजेह थी, तेह ज्ञान मुझ शुद्धि रे ।
॥ भविका० ३५ ।।
|| ढाल ॥ ज्ञानावरणी जे कर्म छ, क्षय उपशम तसु थाय रे । तो हुवे तेहीज आतमा, ज्ञान अमोधता जाय रे । वीर० ८
॥ श्री सम्यग ज्ञान पद काव्यम् ॥ नाणं पहाण जय सिद्धचक, तत्वावरोधिमय पसिद्ध । धरेह चित्ता वसहे फुरंत, मणिक दिन तमो हरतं ॥ ७ ॥
॥ काव्यम् ॥ विमल केवल भासन भास्कर, जगति जतु महोदय कारणं । जिनवरं बहुमान जलौषतः, शुचिमनानपयामि विशुद्धये १७