Book Title: Bruhat Pooja Sangraha
Author(s): Vichakshanashreeji
Publisher: Gyanchand Lunavat

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Page 455
________________ गोत्र कर्म निवारण पूजा ४६३ (तर्ज-मन मोहनजी जगतात, वात सुणो जिनराजजी रे) प्रभु पूजा में भर भाव, दीप जगाओ रे । प्रभु ज्योति से आतम ज्योत, सहज उपाओ रे ।। प्र० ॥ टेरे ॥ सदगुणियों से गुणराग, मन में धरना रे। निज गुण का भी अभिमान, आप न करना रे ॥प्र० ॥१॥ गुण द्वेष का लेश विशेष, क्लेश बढावे रे । गुणद्वप जो गुणठाण, ऊँचे चढ़ावे रे ॥ प्र० ॥२॥ नित ज्ञानी के सत संग, रग जगाओ रे । तत्व ज्ञान की पात उदात्त, अग लगाओ रे। प्र० ॥ ३ ॥ श्रुत धारी अनुभव योग, मार्ग यतावे रे। कृत कर्म महा भर रोग, दूर गमावे रे ॥३०॥ ४ ॥ बहु ध्रुव है दीन दयाल, टाल असातना रे। ऊँच गोत्र करम सम्बन्ध, होता धन धन रे । प्र० ॥ ५॥ न्याय धर्म करम अधिकार, हो सदाचारी रे। ऊँच गोन आचार विचार, हो सागारी रे ॥ प्र० ॥ ६॥ नीच गोत्र के आश्रय दूर, दूर निवारो रे। प्रभु पूजा में विधियोग, भाव विचारो रे ॥ १० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र दीपक पूज, हो उपयोगी रे। ऊँच गोत्र उदय विस्तार, हो सुख भोगी रे । प्र० ॥'प्र०८॥

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