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वृहत् पूजा-संग्रह गोत्र का सुखद सम्बन्ध ।। नै० ॥ ४ ॥ चौदहवें गुणठाणे तक ही, उंच गोत्र का उदय प्रबन्ध ॥ २० ॥ ५ ॥ सत्ता भी क्षय होती है वह, अगुरुलघु आतम निन्द ॥ नै० ॥ ६ ॥ पुद्गल साव चियोग प्रकटते, अनाहार पद परस आनन्द ॥ नै० ॥ ७॥ नैवेद्य पूजा कर नित मांगे, अनाहार पद हरि कवीन्द्र ॥ नै० ॥ ८ ॥
|| काव्यम् ॥ प्राज्याज्य निर्मित सुधा मधुर प्रचारै ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने.."गोत्र कर्म समलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय नैवेद्य यजामहे स्वाहा ।
॥ अष्टम फल पूजा ॥
॥दोहा॥ ऊंच गोत्र फल पुण्य का, ऊचे हों आचार । नीच गोत्र फल पाप का, नीचे हों व्यवहार ॥१॥ ऊंच गोत्र फल योग से, फल पूजा विस्तार । लोक शिखर ऊंचे बसो, जहँ सुख अपरंपार ॥२॥
(तर्ज-तुम तो भले विराजो जी सांवरिया)
पुण्य फल उंचा होता जी, प्रसु पूजा प्रभाम ॥ पुण्य० ॥ टेर ।। अध्र व बन्धी गोत्र करम फल, सादि सान्त कहा। बीज झबूके मोती पोना, जाने सो फल