________________
४७८
वृहत् पूजा-संग्रह ॥ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥
॥दोहा॥ अमृत गुण नैवेद्य से, पूजो परम दयाल । आतम अमृत रस मिले, मिटे भूख जंजाल ॥१॥ भूखा सब संसार है, भूख भरा है दुःख । भूख मिटे भगवान से, भजो मिटे भव भूख ।।२।।
(तर्ज-अपनी करणी के फल सव पाया०) मिट जाय भरम, कट जाय करम अन्तराया। पूजो नैवेद्य से जिनराया। मिट जाय० ॥ टेर ॥ दान लाम भोग उपभोगी, वीर्य लब्धि पंच उपयोगी। जीव गुण हैं ये खास, घाती कर्मों के पाश दुखपाया ॥ पूजो० ॥ १ ॥ जीव गुण ये जड़गत होते, अतएव जीव खाता गोते । भटका चौरासी लाख, रही नहीं कोई साख भरमाया ॥ पू० ॥ २ ॥ ध्रुव बन्धी ध्रुवोदयी जानो, ध्रुवसत्ता को पहिचानो। देशघाती ये पंच, इनका भारी प्रपंच समझाया ॥ पू० ॥ ३ ॥ पांचों अन्तराय ये हैं पाप, अपरावर्तमान की छाप । जीव में हो विशाक, जैसे आमोंमें आक उपजाया ॥ पू०॥४॥ प्रकृति स्थिति रस ओ प्रदेशे, वन्ध चउविध बहुविध वेशे। सोचो कर्म विपाक, तोड़ो