________________
अन्तराय कर्म निवारण पूजा ४७७ के वासी। हो कर अक्षतपद अभिलापी ॥ हो आतमजी० ॥१॥ कर पूज्यों की पूजा भक्ति, विकसित होती आतम शक्ति। फिर दर नहीं रहती मुक्ति ।। हो आतमजी० ॥२॥ शक्तित गुण अपना है जानो, अन्तराय लगा उस पर मानो ! भडारी जैसा पहिचानो । हो आतमजी० ॥३॥ प्रभु भक्ति शक्ति आचरना, क्षायिक भावे क्रम अनुसरना । शक्ति अनन्त अपनी वरना । हो आतमजी० ॥ ४ ॥ विषयों में शक्ति श्रोत बहा, जड में जड सा हो जीव रहा । इससे दुख पाया अरे महा ।। हो आतमजी० ॥५॥ परमातम भक्ति शक्ति लगे, कर्मों की सेना दूर भगे। अक्षत गुण परिणति सहज जगे। हो आतमजी० ॥६॥ हो सरल समुज्ज्वल भाव भरे, अक्षत गुण आतम में उभरे। आतम परमातम हो विचरे ॥ हो आवमजी० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र पुरुषारथ योगी, वीर्यान्तराय क्ष्य अनुयोगी । आतम होता आतम भोगी । हो आतमजी० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् ॥ कृत्वाऽक्षतैः सुपरिणाम गुणैः प्रशस्तं० ।
मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं अहं परमात्मने 'अन्तराय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा ।