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अन्तराय कर्म निवारण पूजा ४७३ रहो उदास, आतम लामे हो सुसराश । हरि कवीन्द्र पद अविनाश, सहज सुखसिद्धि पानेवाले ॥ ० ॥ ८॥
। काव्यम् ।। चञ्चत्सुपञ्चरर वर्ण विराजिमिः ।
मंत्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने "अन्तराय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा ।
॥ चतुर्थ धूप पूजा ॥
॥दोहा॥ उडे धुआं ज्यों धूप से, करम धुआं उडजाय । मोग किटाणु रूप में, रोग किटाणु नशाय ॥१॥ वायु मण्डल शुद्ध हो, मन पावन हो जाय । प्रभु की पूजा धूप से, करो सदा सुखदाय ॥२॥
(तर्ज-लक्ष्मी लीला पावे रे सुन्दर ) भोग रोग का मूल, भविक जन भोग रोग का मूल । यही अनादि भूल, भविक जन मोग रोग का मूल ।। टेर || प्रभु पूजा में भोग त्याग कर, योगी जन बन जावे। त्रिभुवन प्रभुता पूरण भावे, अध्यातम लय लावे ॥ भविफ० ॥१॥ एक चार उपयोग में आवे, सोही भोग कहावे। बार बार उपयोग में आवे, वह उपभोग