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अन्तराय कर्म निवारण पूजा (तर्ज- तावडा घीमी पड़जा रे )
तीर्थ जल पूजा नित करियें, तिरना हो संसार सार, जिन पूजा चित धरिये || तीर्थ० || टेर ॥ विघन घना धन कर्म बना है, आश्रव अभियोगे, इसीलिये जड रूप जीव, दुर्गति में दुस भोगे || तीर्थ० ॥ १ ॥ आपा भूल फँसा जड पुद्गल, परिणामे चेतन । अनजाने मिध्यात्व भाव मय होता हृत जीवन || तीर्थ० ॥ २ ॥ जान भजो जिन देव तीर्थ में, ज्ञान विशद होता । जगजाता यह आतम हरदम, विषयों में सोता ॥ तीर्थ ॥ ३ ॥ परमारथ से क्यों डरो, डरो हिंसा को आचरते । साते पीते भोग कर्म मे महारंभ करते ॥ वीर्य ● ॥ ४ ॥ परमारथ का मूल कहा, सम्यक्त्व इसे धारो । परमातम पद पूज यातमा, अपना निर्द्धारो || तीर्थ० || ५ || आतम ध्यान पवन हटते हैं, विधन धनाधन ये । चढ़ जानें अभिराम आत्म गुण, ठाने नये नये ॥ वीर्य० ॥ ६ ॥ मारे मारे फिरो अरे! सोची हे भनि प्रानी १ । दुर्लभ नरभर मिला गुगुरुगम, सुन लो जिनवाणी || तीर्थ० ॥ ७ ॥ अन्तराय हो दूर आप हो, नित्र आम धन की हरि कीन्द्र जय यगे भगे, ज्योति ना जीवन की ॥ वी० ॥ ८ ॥
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