________________
गोत्र कर्म निवारण पूजा ४६१ । काव्यम् ॥ चञ्चत्सुपञ्चवर वर्ण विराजिमि ।।
मन्त्र-ॐ ही श्री अर्ह परमात्मने गोत्र कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय पुष्प यजामहे स्वाहा ।
|| चतुर्थ धूप पूजा ॥
॥दोहा॥ पड़ कर भी जो आग में, जग को देत सुगन्ध । धूप जन्य जीवन करो, उघ गति प्रबन्ध ||१|| धूप धूम रंगी यनो, साधक साधु महान । प्रभु पूजा कर पूज्य पद, पाओ पुण्य प्रधान ॥२॥ (सर्ज-अवधू सो योगी गुरु मेरा आशावरी)
धूप पूल बड़ भागी करते धूप पूज धन मागी ।। टेर। धूप धूम रंगी जीवन जन, मार मुपायन भरते । प्रभु पद सगी होकर के जो, लोकोत्तम पद वरते ।। क० ॥१॥ धूप दशांगी धर्म दशांगी, जो जीवन आचरते । धूप धूम गति ऊर्ध्व दिशा में, गुण ठाणा अनुसरते ॥ क० ॥२॥ धूपालम्बी ध्यान दशाम, कर्म कीटाणु मरते । स्वस्थ मात्र अजरामर पदवी, सहजानन्दी घरते ।। क० ॥ ३ ॥ धूप धूम सौरम गुण धारी, प्रर पद पूजा करते। दुर्गति दूर