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वृहत् पूजा-संग्रह
निवार समुन्नत, उत्तम कुल प्रति चरते || क० ॥ ४ ॥ जीव विपाकी गोत्र करम वश, नीच कुले अवतरते । पर ऊँचे कर काम हमेशा, ऊँच गोत्र अधिकरते | क० ॥ ५ ॥ हरिकेशी और चित्त संभूति, वन साधु पद वरते । छट्ट गुणठाणे अनुदय से, ऊंच गोत्र संस्करते || कु० ॥ ६ ॥ वीस कोडाकोडी सागर की, उत्कृष्टी स्थिति बन्धे । लघु अन्तरमुहरत की जानो, लागो धरम के धंधे ॥ क० ||७|| गोत्र करम सत्ता क्षय होती, चौदशमें गुण ठाने । हरि कवीन्द्र आतम परमातम, होता तन्मय ताने ॥ क० ॥८॥ || काव्यम् || स्फूर्जत्सुगन्ध विधिनोर्ध्वगति प्रयाणे० । मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अहं परमात्मने गोत्र कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।
|| पंचम दीपक पूजा || ॥ दोहा ॥
जीवन भर जलता रहे, सींच सींच कर स्नेह | पर प्रकाश करता रहे, देखो दीपक एह ॥ १ ॥ दीपक पूजा में सभी, लाओ ऐसे भाव । स्वपर प्रकाशक आप भी, होंगे पुण्य प्रभाव ॥२॥