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वृहत् पूजा-संग्रह
गुणाकर प्रभुजी की महिमा, वरने को कविराया रे । पर उपकारक प्रभुके पाठक; विजय विमल गुण गाया रे । भू० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥
निज निज भाषा भविकजन, तृपत न सुनतहि श्रोत । मीठी अमृत सम गिरा, समझत श्रम नहिं होत ॥ ॥ राग कहरखो ||
जिनंदवा मिल गयो रे, दोय चरणों पर ध्यान शुकल मन गहगयो रे || जि० ॥ ज्ञायक ज्ञेय अनंतनो रे, सब दरसी जिनचंद | सुरतरु सम जग वालहो रे, सेवत सुरनर इन्द | धर्म में लहलह्यो रे ॥ दो० ॥१॥ चौदम गुण थानक करे रे, आतम वीर्य अनंत । योग निरोधनकी क्रिया रे, सूखम बादरकंत । बंध सब टर गयो रे, सरव संवरभयो रे ||दो ० || २ || घन कर आत्मप्रदेशनो रे, कर शैलेशी कर्ण । कर्म सकल दूरे किया रे, जीर्णवृक्ष जिम पर्ण, मुक्ति पद जिन लह्यो रे || दो ० ||३|| ज्ञान क्रिया कर कर्मकोरे क्षय कर पर अनुबंध | निज आतम रूपे लह्यो रे, शाश्वत सुख सम्बन्ध, सिद्ध शुद्ध बुध थयो रे || दो ० ॥ ४ ॥