________________
३७८
वृहन् पूजा-संग्रह
॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ काल अनादि कर्म वश, मुरझाया जो ज्ञान । ज्योतिर्मय प्रभु दरशर्ते, फूले फूल समान ॥१॥ विकसित आतम ज्ञान से, परमातम परधान । पद पाओ पजो यथा, फूलों से भगवान ||२|| (तर्ज - प्रभु धर्मनाथ मोहे प्यारा )
जिन दर्शन पावन पावे, मन कुसुमकली खिल जावे । मति ज्ञान सुगन्ध बढ़ावे, जो प्रभु पद कुसुम चढ़ावे ||टेर | आतम जड़ रस में जब लों, सति ज्ञान आवरण तत्र लों । मति अज्ञानी दुख पावे, जिन दर्शन ज्ञान उपावे ॥ जि० ॥ १ ॥ समरण संज्ञा पुद्गल की, चिन्ता रहती पर कल की । पर घर तज निज घर आवे, परमातम पद प्रकटावे ॥ जि० ||२|| व्यंजन अर्थावग्रह से, प्रभु दर्शन गुण संग्रह से । ईहा अपाय इक धारा, आतम गुण ज्ञान संभारा || जि० ॥ ३ ॥ क्षय उपशम मिश्रित भावे, तरतमता ज्ञाने आवे । अट्ठाइस भेद विचारे, मति ज्ञानी गुण विस्तारे || जि० ||४|| विनयादिक चार प्रकारी, मति आतमपद अधिकारी । हो जिन पद पूजा ठावे, पद पूज्य निजी प्रकटावे ॥ जि० ॥ ५ ॥