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वृहत् पूजा-संप्रह
नाम करम में सूर्तता रे, पाती पूर्ण विकास || जि० || ३ || यह शरीर संस्थान ये रे, ये संहनन प्रकार || जि० ॥ नाम करम के भेद ये रे, देखे सब संसार || जि० ॥ ४ ॥ पुण्य पाप प्रगट यहीं रे, सोचो समझो नेक ॥ जि० ॥ जिन दर्शन में ही किया रे, वर्णन कर्म विवेक ॥ जि०
॥ ५ ॥ प्रकृति पुद्गल पाकिनी रे, है संख्या छत्तीस || जि० ॥ नाम करम की ये सभी रे, तोड़े त्रिभुवन ईश ॥ जि० ॥ ६ ॥ प्रकृति सत्तावीस है रे, जीव विपाकी नाम ॥ जि० ॥ पुण्य पाप दो रूप में रे, भोगो आप अकाम ॥ जि० ॥ ७ ॥ शाह कमाता नाम से रे, चोर मरे निज नाम || जि० ॥ हरि कवीन्द्र प्रभु पूजते रे, नाम काम अभिराम || जि० ॥ ८ ॥
|| काव्यम् || कृत्वाक्षतैः सुपरिणाम गुणैः प्रशस्तं । मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने नाम कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा ।
॥ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
ओज लोम प्रक्षेप से, तीन प्रकार आहार | करता सब संसार है, विग्रह गति अनाहार ॥१॥
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