Book Title: Bruhat Pooja Sangraha
Author(s): Vichakshanashreeji
Publisher: Gyanchand Lunavat

View full book text
Previous | Next

Page 442
________________ वृहत् पूजा-संग्रह (तर्ज-उठो नी मोरे आतमरामा, जिनमुख जोवा जइये रे ) दीपक पूजा करिये भविजन, मव वन में न भटकिये रे। मोह तिमिर मिट जाये रे भविजन, दुर्गति में न लटलिये रे ॥ टेर ॥ त्रास पडे तब गति कर सकता, यह बस नाम कहाचे रे । विकलेंद्रिय पंचेन्द्रिय स हैं, धन जो प्रभु मुख पावे रे ॥ दी० ॥ १ ॥ स्थूल रूप जीवन में पाता, बादर नाम सुयोगे रे। जोर विपाकी होकर भी जो, पुद्गल में अभियोगे रे ॥ दी० ॥ २ ॥ पर्याप्ति शक्ति छह होती, आहारादि प्रकारा रे। लब्धि करण पर्याप्ता भावे, प्रभु पूजक जयकारा रे ॥ दी० ॥ ३॥ पृथक शरीरे पृथक जीव हो, वह प्रत्येक सुनामा रे। जिन दर्शन निज दर्शन करता, वह जीवन अभिरामा रे ॥ दी० ॥ ४ ॥ अंग उपांगे दृढ़ता होती, जो थिर नाम उपावे रे। नाभि से सिर तक सुन्दर शुभ, धन प्रभु दर्शन पावे रे ॥ दी० ॥ ५॥ ओरों को प्यारा होता है, सुभग महा बड़ भागी रे। जो रहता वेदाम जगत में, वीतराग पद रागी रे ॥ दी० ॥ ६ ॥ सुस्वर स्वर सब सुनना चाहें, वचन न जास उथापे रे । वह आदेय वचन प्रभु प्रवचन, धन जीवन में थापे रे ॥ दी० ॥ ७॥ हरि कवीन्द्र जश कीरति गावे,

Loading...

Page Navigation
1 ... 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474