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दर्शनावरणीय कर्म निवारण पूजा ३६५ काल अनादि सोता, सोनेवाला निज धन खोता। निर्धन रोता फिरता होता, भव दुख मारणा रे ॥ पू० । १॥ निद्रा निद्रानिद्रारूप, प्रचलाप्रचला प्रचला चूप । स्त्याना नर्द्विका रूप अनूप, करे गुण हारणा रे || पू० ॥२॥ दर्शन आवरणे यह योग, पांचो निद्रा का भव रोग । मेटो धारो आतम योग, रोग परिहारणारे ॥पू० ॥३॥ छठे गुण ठाणे तक पांच, निद्रा करती गुण की खांच। उत्तम अप्रमाद गुण आंच, धुप गुण धारणा रे ॥ पू० ॥ ४ ॥ यारहवें गुण ठाणे आप, निद्रा द्विक मिट जाता पाप | लगी तर वीतरागता छाप, करो सुविचारणा रे ॥ पू० ॥ ५ ॥ करम जड़ पुद्गल होता बंध, आतमा का रहता सम्बन्ध । क्रिया करते हो आतम अंध, न दर्शन सारणा रे ॥ ३० ॥ ६ ॥ पाया क्षय उपशममय भाव, प्रकटा आतम पुण्य प्रभाव । करके करम मूल में घाव, भगोदधि तारणा रे ।। पृ० ॥७॥ पूजो सुख सागर भगवान, करते हरि कनीन्द्र गुणगान । भाव दशांगी धूप निधान, पूज विस्तारणा रे ॥ ५० ॥८॥
| काव्यम् ॥ स्फूर्जल्गन्ध विधिनोर्ध्वगति प्रयाणे० ।
मन्त्र --ॐ हीं अहं परमात्मने “दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।