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मोहनीय कर्म निवारण पूजा ४१७ ॥ काव्यम् ॥ लोकपणाति वृष्णोदयवारणाय० ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने "मोहनीय कर्म समृलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय जल यजामहे स्वाहा । | द्वितीय चन्दन पूजा ॥
॥दोहा॥ मोहनाग विप आग से, सन्तापित सब लोक । प्रभुपद चन्दन सरस रस, होवें भाव अशोक ॥१॥ मेदामेद विचार से, चन्दन होना आप।
प्रभुपद के सतसंग में, मिटे पाप संताप ॥२॥ (वर्ज-उठ जाग मुसाफिर भोर भया, अव रैन कहाँ जो त्०) ___ चन्दन पूजा के भाव भरो, खुद चन्दन रूप अनूप धरो। फिर मोहनाग विपसे न डरो, सुख सहज समाधि आप वरो ॥ टेर ॥ सित्तर कोडाकोडी सागर, उत्कृष्ट मोह थिति बन्ध कहा। हो सावधान उस को तोडो, भव भाव उदासी हो विचरो ॥ चं० ॥ १ ॥ इस मोह करम दुखदायी की, हैं आठ वीस प्रकृति जानो । मोहनीय तीन सोलह कपाय, नर नो कपाय सब दूर करो ॥ चं० ॥२॥ दर्शन चारित्र गुणों का घात, करे यह घाती मोह करम । जो तोड़ सकें जन धन्य धन्य, आदर बहुमान सदैव करो
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