Book Title: Bruhat Pooja Sangraha
Author(s): Vichakshanashreeji
Publisher: Gyanchand Lunavat

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Page 436
________________ ४४४ वृहत् पूजा-संग्रह " ( तर्ज - तन मन से फेरो माला, काटे रे जाला जीवका ) कमों के मल को हरती जल पूजा प्रभु की कीजिये । नाम करम नित रूप बनाता, यहाँ चितेरे जैसा। आतम आप अरूपी देखो, हो गया कैसा कैसा रे || क० ॥ १ ॥ नरक तिरि नर सुर गति चारों भटक भटक भरमाया । इक दो तीन चार पंचेन्द्रिय, जाती जोर जमाया रे ॥ क० || २ || औदारिक चैक्रिय आहारक, तैजस कार्मण जानो । आदि तीन के अंग उपांगा, अंगोपांग पिछानोरे ॥ ० ॥ ३ ॥ चन्धन संघातन शरीर के पांच पांच परकारा | लाख और दंताली जैसे, बंध ग्रहण करतारा रे || कु० ॥ ४ ॥ वज्र ऋषभ नाराच ऋषभ नाराच अर्ध नाराचा | किली छेवठा छह संघयणे, मारो मोह तमाचारे ॥ ६० ॥ ५ ॥ समचउरंस निगोह सादि और, कूप वाचना हुँडा । आतम योगी पुण्य उपावें, और पाप का कुण्डा रे || क० || ६ || वर्णगन्ध रस फरस बीस शुभ, अशुभ सभी कहलाये । आनुपूर्वी हय लगाम ज्यों, चार गति ले जाये रे || क० || ७ || चाल शुभा शुभ गति विहायस, जीव सभी की होती । हरि कवीन्द्र धन भाग गति मति, आतम अभिमुख होती रे ॥ क० ॥ ८ ॥

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