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वृहत् पूजा-संग्रह होती है । रति अरति करते आतस की, मिटी महा ज्योति है रे ॥ अक्षय० ॥ ३ ॥ अप्रिय घटना घट जाने से, या अनिय चिन्तन से । शोक प्रकटता उसे मिटाओ, परमातम पूजन से ॥ अक्षय० ॥ ४ ॥ अय मत पैदा करो अन्य को, मत निजमें भय खाओ । आतम भावे निर्भयता धर, अजर अमर पद पाओ रे । अक्षय० ॥ ५ ॥ घृणा निशरो तत्त्व विचारो, हो द्रव्यानुयोगी। आतम उपयोगी हो जाओ, परमातम पद सोगी रे ॥ अक्षय० ॥६॥बन्ध उदय उदीरण सत्ता, कर्म विपाक विचारो। हास्यादिक कुछ नहीं दीखें पर, महा भयंकर वारो रे । अक्षय० ॥७॥ भय कुत्सा ध्रुवबन्धी अध्रुव, बन्धी हास्पादिक है। हरि कवीन्द्र प्रभु ध्यान लीन हो, त्यागें धन्य अधिक हैं रे ॥ अक्षय० ॥८॥
| काव्यम् ॥ कृत्वाऽक्षतैः सुपरिणाम गुणैः प्रशस्तं० ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने..."मोहनीय कर्म समृलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा।