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ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ३७७ ॥ २ ॥ अक्षर ज्ञान अनन्त माग में, कर्म अनावृत रहता। इस कारण आतम गुण चेतन, नित्य निरन्तर बहता रे ।। गुण० ॥ ३ ॥ आतम चेतन कर्म ये जड़ हैं, सन्तति संग अनादि । जड़ संगी चेतन भव भटके, होती है पखादी रे ।। गुण० ॥ ४ ॥ कस्तूरी नामि रहती है, मृगदढ़े कहीं ओरा। क्यों अज्ञानी आतम ददे, निज सुख को पर ठोरा रे ॥ गुण० ॥५॥ देव गुरु सतसगी आतम, अपना रूप पिछाने। सुखसागर भगवान बने वह, नित चढ़ते गुणठाने रे । गुण० ॥ ६॥ करम करम का काट करेंगे, कर्म आराधक ठानो । पूज्य पुरुप पद पन्दन पूजन, द्रव्य भाव से ठानो रे ।। गुण० ॥ ७ ॥ पूज्य न चाहे परकुत पूजा, पूजारी गुणकारी । हरि कनीन्द्र प्रभु चन्दन पूजा, पाप ताप संहारी रे ॥ गुण० ॥ ८॥
काव्य । पापोपतापशमनाय महद्गुणाय, दुर्योध भावि भव रोग निवारणाय | आत्म प्रमोद करणाय यजामहे श्री, वीरं विशेष गुण चन्दन सद्रसेन । ___ मत्र-ॐ ही अहे परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय ज्ञानावरणीय कर्म समलोच्छदाय श्रीगीर जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहे साहा ।