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ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ३७५ नन्दन भव में बीस पदों के, आराधक अधिकारी। प्राणत स्वर्गे च्यवन कल्याणक, प्रभु का मगलकारी ॥ पू० ॥ १ ॥ देवानन्दा गर्भ विराजे, व्यासी दिन अवतारी । हरिणगमेपी इन्द्रादेशे, निजकर्तव्य विचारी | पृ० ॥ २ ॥ गर्भ हरण कर त्रिशला कूखे, लावे धन बलिहारी। ऊँच गोत्र कल्याणक भूमि, त्रिभुवन तारणहारी ॥ १० ॥३॥ चैत सुदी तेरस दिन उत्तम, जिन जनमे जयकारी। जिन महोत्सव सुरपति करते, समकित दर्शनधारी ॥ पू० ॥ ४ ॥ राज रमणी सुख भोग त्याग कर, तीस वरस में भारी। सयम ले तप कर्म सपाये, केवल कमला धारी | पू० ॥ ५ ॥ शासन वांया शिव पाया, जो हो गये भवपारी, आतम माचे प्रभु को पायें, धन धन वे नरनारी ॥ पू० ॥ ६ ॥ हम संसारी भव में भटके, प्रभु है शिव संचारी । कैसे दर्शन पायें ? गुरु गम, आगम के अनुसारी ॥ ५० ॥ ७ ॥ प्रभु अनन्त ज्ञान के स्वामी, बोध वीज दातारी हरि कवीन्द्र भक्ति जल सींचो, हो अनन्त विस्तारी ॥ पू० ॥८॥
|| काव्यम् ॥ लोकेपणाति ति वृष्णोदयमारणाय, सद्बोधिधीज
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